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द्वितीय अधिकार
१०७. असत्य अनेक प्रकार के हैं अथवा अस्ति को नास्ति कहना, नास्ति को अस्ति कहना है कुछ और कहना, कुछ तथा सावद्य, गहित, निद्यनीय, कठोर आदि वचन असत्य कहलाते हैं ।। ८० ॥
इन १२ भाषाओं का वर्णन सत्यप्रवाद में होता है।
दश प्रकार के सत्य वचन का वर्णन भी इसी में है। वह इस प्रकार हैं-जनपद सत्य, सम्मति सत्य, स्थापना सत्य, नाम सत्य, रूप सत्य, संभावना सत्य, भाव सत्य, प्रतीति सत्य, व्यवहार सत्य और उपमा सत्य के भेद से सत्य दश प्रकार का है ।। ८१ ।।
भत्तं राया सम्मदि पडिमा तह होदि एस सुरदत्तो । किण्डो जंबूदीवं पल्लदि पाववज्जवयो ॥८२॥
भक्त राजा सम्मतिः प्रतिमा तथा भवत्येष सुरदत्तः । कृष्णः जम्बूद्वीपं परिवर्तयति पापवर्त्यवचनं ॥
विशेषार्थ तत्तद्देशवासी मनुष्यों के व्यवहार में जो शब्द रूप हो रहा है उसको जनपद सत्य कहते हैं । जैसे-भक्त, भात, भाटु, वेद, वंटक, मुकूडू, कूल, चोरु आदि भिन्न-भिन्न शब्दों से एक ही चीज को ( भातरो) कहा जाता है। __बहुत मनुष्यों की सम्मति से जो सर्व साधारण में रूढ़ हो उसको सम्मति सत्य या संवृति सत्य कहते हैं। जैसे-राजा के सिवाय किसी अन्य को भी राजा कहना।
किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु के समारोप करने वाले बचन की स्थापना सत्य कहते हैं । जैसे-चन्द्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा को चन्द्रप्रभ कहना।
दूसरी कोई अपेक्षा न रखकर केवल व्यवहार के लिए जो किसी का संज्ञा कर्म करना इसको नाम सत्य कहते हैं । जैसे सूरदत्त । यद्यपि उसको बलशालि तो दिया नहीं है, तथापि व्यवहार के लिए उसको सुरदत्त कहते हैं।
पुद्गल के रूपादिक अनेक गुणों में से रूप की प्रधानता से जो वचन कहा जाय उसको रूप सत्य कहते हैं। जैसे किसी मनुष्य को काला कहना । यद्यपि उसके शरीर में अन्य वर्ण भी पाये जाते हैं अथवा उसके.