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द्वितीय अधिकार
१०३ खाने से जीव मर जाता है उस द्रव्य को विष कहते हैं। भीतर पैर रखते ही जिसके कपाट बन्द हो जाते हैं उनको यंत्र कहते हैं। जिससे चहे आदि पकड़े जाते हैं उसको कूट कहते हैं। रस्सी से गाँठ लगाकर जो जाल बनाया जाता है उसको पंजर कहते हैं। हाथी आदि को पकड़ने के लिए जो गई आदिक बनाये जाते हैं उसको बंध कहते हैं । इत्यादि पदार्थों में दूसरे के उपदेश के बिना जो बुद्धि प्रवृत्त होतो है उसको कुमतिज्ञान कहते हैं, क्योंकि उपदेशपूर्वक होने से वह ज्ञान श्रुतज्ञान कहा जाएगा। चोरशास्त्र तथा हिंसाशास्त्र भारत, रामायण आदि के परमार्थ शून्य अतएव अनादरणीय उपदेशों को मिथ्याश्रुतज्ञान कहते हैं। आदि शब्द से सभी हिंसादि पाप कर्मों के विधायक तथा असमीचीन तत्त्व के प्रतिपादक कुश्रुत और उनके ज्ञान को कुश्रुतज्ञान कहते हैं।
सर्वज्ञदेव के द्वारा उपदिष्ट आगम में विपरीत अवधिज्ञान को विभंगावधि कहते हैं । इसके दो भेद हैं। एक क्षायोपरामिक दूसरा भवप्रत्यय । मिथ्यादृष्टि देव और नारकियों के भवप्रत्यय कुअवधिज्ञान होता है और मनुष्य तथा तिर्यञ्चों के क्षायोपशमिक विभंगावधि होती है। कुअवधि ( विभंगावधि ) का अन्तरंग कारण मिथ्यात्व कर्म और अनन्तानुबन्धी कषाय है क्योंकि मिथ्यादर्शन और अनन्तानुबंधी कषाय के कारण ही अवधिज्ञान की समीचीनता का भंग होकर इसमें अयथार्थता असमीचीनता आ जाती है।
रूऊणकोडिपयं णाणपवादं अणेयणाणाणं । णाणाभेयपरूवणपरं णमंसामि भावजुदो ॥ ७७ ॥
रूपोनकोटिपदं ज्ञानप्रवादं अनेकज्ञानानां ।
नानाभेदप्ररूपणपरं नमामि भावयुक्तः॥ पयाणि ९९९९९९९।
इदि णाणपवादं गदं-इति ज्ञानप्रवादं गतं । __ इस प्रकार यह ज्ञानप्रवाद नामक एक कम एक करोड़ पदों के द्वारा अनेक भेद रूप, अनेक प्रकार के ज्ञानों का अर्थात् पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान के भेद-प्रभेदों का निरूपण करता है इसमें बारह वस्तु और दो सौ चालोस प्राभृत हैं। इस ज्ञानप्रवाद नामक प्राभृत को मैं भाव सहित नमस्कार करता हूँ अथवा यह ज्ञानप्रवाद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय को अपेक्षा अनादि, अनन्त, अनादिसान्त, सादि अनन्त और सादिसान्त विकल्पों तथा इसी प्रकार ज्ञान और ज्ञान के स्वरूप का कथन करता है ॥ ७७ ।।