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अंगपण्णत्ति-...-- सर्वावरणविमुक्तं लोकालोकप्रकाशकं नित्यं । इन्द्रियक्रमपरिमुक्तं केवलज्ञानं निराबाधं ॥
इदि केवलणाणं-इति केवलज्ञानं । सर्व आवरणों से रहित, लोक और अलोक का प्रकाशक, नित्य इन्द्रियक्रम से परिमुक्त और निराबाध केवलज्ञान होता है। __ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान आवरण सहित होने से सावरण है। परन्तु केवलज्ञान आवरण रहित होने से निरावरण है ।। ७५ ॥
विशेषार्थ __ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सारे छहों द्रव्यों और उनकी कुछ पर्यायों को जानते हैं। अवधिज्ञान रूपी ( पुद्गल और पुद्गल के साथ सम्बन्धित संसारी जीव ) पदार्थ को जानता है। और मनःपर्ययज्ञान सर्वा अवधिज्ञान के द्वारा जाने गये द्रव्य के अनन्तवें भाग को जानता है । परन्तु केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्यों को त्रिकालवर्ती सर्व द्रव्य और पर्यायों को जानता है अर्थात्, सर्वलोक, अलोक को जानता है। अतः लोक और अलोक का प्रकाशक है।
चार ज्ञान अनित्य नाशवन्त हैं परन्तु केवलज्ञान नित्य है, अविनाशी है। __ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानते हैं परन्तु केवलज्ञान इन्द्रिय क्रम से रहित अतीन्द्रिय है तथा निराबाध है।
॥ इस प्रकार केवलज्ञान का कथन समाप्त हुआ ।। कुमदि कुसुदं विभंगं अण्णाणतियं वि मिच्छअणपुव्वं । सच्चादिभावमुक्कं भवहेहूँ सम्मभावचुदं ॥ ७६ ॥
कुमतिः कुश्रुतं विभंगं अज्ञानत्रयमपि मिथ्यानपूर्वं ।
सत्यादिभावविमुक्तं भवहेतुः सम्यक्त्वभावच्युतं ॥ कुमति, कुश्रुति और विभंगा (कु ) अवधि के भेद से अज्ञान तीन प्रकार का है। ये तीनों ज्ञान मिथ्यादर्शन और अनन्तानुब ध। कषाय सहित होते हैं । यह सत्यादि भाव से रहित है, संसार का कारण है और सम्यक्त्व भाव से रहित है ।। ७६ ॥
विशेषार्थ दूसरे के उपदेश के बिना हो विष, यंत्र, कूट, पंजर था बंध आदि के विषय में जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसको कुमतिज्ञान कहते हैं । जिसके