________________
__१०१
मन की प्रतीति लेकर वा मनका प्रतिसंधान करके जो ज्ञान होता है वह मनःपर्ययज्ञान है।
परकीय मनोविचार का विषय भाव घटादि मनोगत अर्थ को मन कहते हैं क्योंकि वह मन में स्थित है अतः उपचार से मनोगत अर्थ को ही मन कह दिया जाता है। ___ मनःपर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम आदि अंतरंग बहिरंग कारणों के सन्निधान होने पर जो दूसरों के मनोगत अर्थ को जानता है वह मनःपर्ययज्ञान है। वह मनःपर्पयज्ञान दो प्रकार का है। उसमें प्रथम ऋजुमति है और द्वितीय विपुलमति है ।। ७४ ।।
विशेषार्थ
ऋजु का अर्थ सरल है और विपुल का अर्थ है कुटिल ।
वीर्यान्त राय और मनःपर्ययज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर तथा तदनुकूल अंग उपांग का निर्माण होने पर नरलोक में स्थित दूसरे के मनोगत ऋजु ( सरल ) मन, वचन और काय गत विषय को जानता है वह ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान है ।
विपुलमति मनःपर्य यज्ञान वीर्यान्तराय और मनःपर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम रूप अन्तरंग का कारण और तदनुकूल अंगोपांग का निर्माण आदि निमित्त कारणों के मिलने पर नरलोक मे स्थित स्व और पर के व्यक्त मन और अव्यक्त मन के द्वारा चिन्तित, अचिन्तित या अर्धचिंतित सभी प्रकार से चिन्ता, जीवन, मरण, सुख, दुःख, लाभ, अलाभ आदि को जानता है। दोनों ही मनःपर्ययज्ञान मानुषोत्तर पर्वत के अभ्यन्तर स्थित होकर प्रश्न करता है, उसकी बात को जानता है, उतने ही क्षेत्र की बात को जानता है ऐसा नियम नहीं है । ये दोनों ही मनःपर्ययज्ञान संयमी मुनि के ही होते हैं। परन्तु ऋजुमति छूट भी सकता है और विपुलमति नहीं छूटता है, अप्रतिपाति है।
। मनःपर्यय ज्ञान का वर्णन समाप्त हुआ।
__ के लज्ञान का कथन सव्वावरणविमुक्कं लोयालोयप्पयासगं णिच्चं । इंदियकमपरिमुक्यः केवलणाणं णिरावाहं ॥ ७५ ॥