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अंगषण्णत्ति बढ़ता रहता है, वह वर्धमान अवधिज्ञान है । वह असंख्यात लोक परिमाण बढ़ता रहता है। ___ जो अवधिज्ञान जिस परिमाण से उत्पन्न हुआ था उस परिमाण से प्रतिदिन सम्यग्दर्शनादि गुणों की हानि और संक्लेश परिमाण की वृद्धि के योग से अंगुल के असंख्यात भाग तक घटता रहे वह हीयमान अवधि. ज्ञान है।
सम्यग्दर्शनादि गुणों के अवस्थान मुक्तिप्राप्ति या केवलज्ञान पर्यन्त जैसे का तेसा बना रहे, न बढ़े और न घटे वह अबस्थित अवधिज्ञान है।
जिस परिमाण से उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन आदि गुणों की वृद्धि एवं हानि के कारण वायु से प्रेरित जल की तरंगों के समान जहाँ तक घट सकता है वहाँ तक घटता रहे और जहाँ तक बढ़ सकता है वहाँ तक बढ़ता रहे, वह अनवस्थित अवधिज्ञान है।
बिजली की चमक समान विनाशशील है अर्थात् छूटने वाला है यह प्रतिपाति अवधिज्ञान है।
केवलज्ञान पर्यन्त नहीं छूटने वाला है वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान है ।
हीयमान और प्रतिपाति को छोड़कर शेष छह भेद परमावधिज्ञान के होते हैं। क्योंकि परमावधि उत्कृष्ट संयमी के होता है और वह उसो भव में मोक्ष को प्राप्त करता है। अतः हीयमान और प्रतिपाति नहीं है।
अवस्थित अनुगामी, अननुगामो और अप्रतिपाति ये चार भेद सर्वावधि के हैं।
सर्वावधि अवधिज्ञान वृद्धिंगत संयमवाले तद्भव मोक्षगामी महामुनि के होता है । वह जैसा का तैसा रहता है अतः अवस्थित है। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में साथ जाता है अतः अनुगामी है। भवान्तर में साथ नहीं जाता है क्योंकि इस भव म मोक्ष हो जाता है अतः अननुगामी है। यह केवलज्ञान पर्यन्त छूटता नहीं है अतः अप्रतिपाति है।
॥अवधिज्ञान का वर्णन समाप्त हुआ ।।
मनःपर्ययज्ञान का कथन मणपज्जयं तु दुविहं स्जुिमदि पढमं तु तत्थ विउलमदी । संजमजुत्तस्स हवे जं जाणइ तं खु गरलोए ॥७४॥
मनःपर्ययस्तु द्विविध ऋजुमतिः प्रथमस्तु तत्र विपुलमतिः। संयमंयुक्तस्य भवेत् यज्जानास्ति तत् खलु नरलोके ॥
इदि मणपज्जयं-इति मनःपर्ययः।