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द्वितीय अधिकार अणुगामो देसादिसु तमणणुगामी य हीयमाणो वि। वड्ढेतो वि अवत्थिद अणवत्थिद होंति छन्भेया ॥ ७३ ॥
अनुगामी देशादिषु तेष्वननुगामी च हीयमानोऽपि । वर्द्धमानोऽपि अवस्थितोऽनवस्थितो भवन्ति षड्भेदाः॥
इति ओहिणाणं-इत्यवधिज्ञानं । देशावधि के उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ये तीन भेद हैं। इसमें जघन्य गुणप्रत्यय देशावधि मनुष्य और तियंचों के होता है, उत्कृष्ट गुणप्रत्यय देशावधि संयमधारी मुनीन्द्रों के ही होता है। भवप्रत्यय देशावधिज्ञान, देव, नारकी और तीर्थंकरों के हो होता है ॥ ७१ ॥
प्रथम ( देशावधि ) ज्ञान अनेक विकल्प ( जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से अनेक विकल्प ) वाला है। दूसरी परमावधि, सर्वावधि विकल्प रहित है। अर्थात् इनके भेद नहीं है। परमावधिज्ञान सकल संयमी चरमशरीरो के ही होते हैं, अन्य के नहीं ।। ७२ ।। ____गुणप्रत्यय देशावधि के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित ये छह भेद हैं। ( तथा प्रतिपाति और अप्रतिपाति ये दो भेद मिला देने से इसके आठ भेद भी ) ॥ ७३ ॥
विशेषार्थ क्षेत्रानुगामो, भवानुगामी और उभयानुगामो के भेद से अनुगामी के तीन भेद हैं।
जो अवधिज्ञान सूर्य के प्रकाश के समान भवान्तर में साथ जाता है वह भवानुगामी है। ___ जो अवधिज्ञान एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में साथ जाता है वह क्षेत्रानुगामी और क्षेत्र तथा भव दोनों में साथ जाता है वह उभयानुगामी है ।
जो अवधिज्ञान मूर्ख के प्रश्न के समान वहीं गिर जाता है भवान्तर और क्षेत्रान्तर में साथ नहीं जाता है वह अननुगामी है। ___ सम्यग्दर्शनादि गुणों की विशुद्धि के कारण अरणी के निर्मथन से उत्पन्न शुष्क पत्रों से उपचीयमान ईन्धन के समूह से वृद्धिंगत अग्नि के समान
१. तत्त्वार्थराजवार्तिक में परमाववि के भो जवन्य, मध्यम और उत्कृष्ट तीन -- भेद कहे हैं।