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अंगपण्णत्ति
पलट जाने पर पूर्ववर्ती ज्ञान संस्कार का रूप ग्रहण करता है वह वासना कहलाती है। कालान्तर में कोई निमित्त पाकर वासना का पुनः जागृत हो जाना स्मृति है। इस प्रकार एक ही ज्ञान की धारा क्रम से विकसित होती हुई अनेक नामों से अभिहित होती है। विकास क्रम के आधार पर ही उसके पूर्वोक्त चार भेद किये गये हैं। .
इन्दियअणिदियुत्थं वेंजणअत्थादवग्गहो दुविहो । चक्खुस्स माणसस्स य पढमो ण वऽवग्गहो कमसो॥६३॥ इन्द्रियानिन्द्रियोत्थं व्यञ्जनार्थाभ्यामवग्रहो द्विविधः ।
चक्षुषः मनसश्च प्रथमो न चावग्रहः क्रमशः॥ अवग्रह के दो भेद हैं-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । अप्राप्त अर्थ के ग्रहण करने को अर्थावग्रह कहते हैं । प्राप्त अर्थ के ग्रहण करने को व्यंजनावग्रह कहते हैं।
अर्थावग्रह पाँच इन्द्रिय और मन से होता है तथा व्यंजनावग्रह चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इंद्रियों से होता है। अर्थात् चक्षु और मन से प्रथमावग्रह ( व्यंजनावग्रह ) नहीं होता है। अथवा अव्यक्त शब्दादिक को व्यंजन कहते हैं और व्यक्त शब्दादिक को अर्थ कहते हैं। अव्यक्त का ग्रहण व्यंजनावग्रह कहलाता है। व्यंजन का केवल अवग्रह ही होता है ईहा आदि नहीं। व्यक्त पदार्थ का अवग्रह, अर्थावग्रह कहलाता है। इसके ईहा आदि चारों होते हैं । अथवा प्रथम अवस्था में व्यंजनावग्रह और द्वितीयादि समय में वहो अर्थावग्रह हो जाता है ।।६३॥
बहु बहुविहं च खिप्पाणिस्सिदणुत्तं धुवं च इदरं च । पडि एक्केक्के जादे तिसयं छत्तीसभेयं च ॥६४॥
बहु बहुविधं च क्षिप्र अनिसृतं अनुक्तं ध्रुवं इतरच्च । प्रति एकैकस्मिन् जाते त्रिशतं षट्त्रिशभेदं च ॥
मदिणाणं-मतिज्ञानम् बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव, एक, एकविध, अक्षिप्र, निसृत, उक्त और अध्रुव इन बारह पदार्थों के ग्रहण के भेद से ज्ञान बारह प्रकार का है। इन बारह का अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा के साथ गुणा करने पर अड़तालीस भेद होते हैं । तथा अड़तालीस भेदों को पाँच इन्द्रिय और मन के साथ गुणा करने से दो सौ अठासी भेद होते हैं । व्यंजन पदार्थ