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द्वितीय अधिकार का केवल अवग्रह हो होता है और वह चक्षु और मन से नहीं होता । अतः बह आदि बारह भेदों को स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों से गुणा करने पर अड़तालीस भेद होते हैं। इन भेदों को दो सौ अठासी में मिला देने से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं।
विशेषार्थ ___ बहु शब्द संख्यावाची और विपुलवाची है। संख्यावाची एक दो बहुत
और विपूलवाची बहत से गेहूँ, बहत से चावल इत्यादि विध प्रकार वाची हैं। जैसे श्रुतज्ञानावरण कर्म के प्रकृष्ट क्षयोपशम होने से युगपत् तत्, वितत, घन, सूषिर आदि बहत शब्दों को सुनता है वह बह ज्ञान है तथा तत, वितत आदि के बहुत से प्रकारों (भेदों) को ग्रहण करता है वह बहुविध है। श्रोत्रेन्द्रियावरण का अल्प क्षयोपशम से परिणत आत्मा 'तत' आदि शब्दों में से किसी एक शब्द को ग्रहण करता है वह एकावग्रह है। तथा उनमें से एक प्रकार के शब्द को ग्रहण करता है वह एक विधावग्रह है। प्रकृष्ट ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने से शीघ्रता से शब्द को सुनता है वह क्षिप्रावग्रह है और क्षयोपशम की न्यूनता होने से देरी से शब्द सुनता है वह अक्षिप्रावग्रह है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की विशुद्धि होने से पूरे वाक्य का उच्चारण नहीं होने पर भी उसका ज्ञान कर लेना अनिसतावग्रह है और क्षयोपशम की न्यूनता होने पर पूर्ण रूप से उच्चारित शब्दों का ज्ञान करना निसृतावग्रह है।
श्रोत्रेन्द्रिय का प्रकृष्ट क्षयोपशम होने पर बिना कहे (शब्दों का उच्चारण किये बिना अभिप्राय मात्र से) जान लेना अनुवत्तावग्रह है। और कहने (शब्दों का उच्चारण करने) पर जानना उक्तावग्रह है।
संक्लेश परिणाम के अभाव में तथा श्रोत्रेन्द्रियावरण कर्म के प्रकृष्ट क्षयोपशम से जैसा प्रथम समय में ज्ञान हुआ था वैसा ही दूसरे आदि समय में होना ध्रुवज्ञान है। अथवा स्तंभ, पर्वत आदि ध्रुव पदार्थों का ज्ञान ध्रुवज्ञान है। तथा पुनः-पुनः संक्लेश और विशुद्धि में झूलने वाले आत्मा की यथानुरूप श्रोत्रेन्द्रिय का सान्निध्य रहने पर भी कभी शीघ्र ग्रहण करता है, कभी विलम्ब से शब्द को ग्रहण करता है, कभी उक्त को, कभी अनुक्त को, कभी निसृत को, कभी अनिसृत को ग्रहण करता है वह अध्रुवावग्रह है। अथवा बिजली आदि अध्रुव पदार्थों का ज्ञान होना अध्रुव है। इसी प्रकार ईहा, अवाय और धारणा को समझना चाहिये। जिस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय के साथ बहु आदि का अवग्रह, ईहा, अवाय और