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द्वितीय अधिकार
विसयाणं विसईणं संजोगे दंसणं वियप्पवदं । अवगहणाणं तत्तो विसेसकखा हवे ईहा ॥ ६१ ॥ विषयाणां विषयिणां संयोगे दर्शनं विकल्पवत् । अवग्रहज्ञानं ततो विशेषाकांक्षा भवेदीहा ॥
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तत्तो सुणिण्णओ खलु होदि अवाओ दु वत्थुजादस्स । कालंतरे वि णिणिदसमरण हेऊ तुरीयं तु ॥ ६२ ॥ ततः सुनिर्णयः खलु भवति अवायस्तु वस्तुजातस्य 1 कालान्तरेsपि निर्णीत स्मरणहेतुस्तुयं तु ॥
विषय (स्पर्श, रस, गन्ध आदि पदार्थ) विषयी (आत्मा वा इंद्रियों) का सन्निपात ( संयोग ) दर्शन कहलाता है वह निर्विकल्प होता है । उस विषय विषयो के सान्निपात के अनन्तर जो प्रथम विकल्प ग्रहण होता है वह अवग्रह ज्ञान है । दर्शन में सामान्य सत्ता का ग्रहण होता है। उसके अनन्तर मनुष्यत्व आदि विशेष का ग्रहण होता है तथा सविकल्प होता है ।
अवग्रह ज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थों के विशेष जानने की इच्छा को ईहा कहते हैं । जैसे अवग्रह ज्ञान ने जाना यह मानव है । उसके बाद "यह मानव उत्तरप्रदेश का है कि दक्षिणदेश का" इस प्रकार विशेष जानने की इच्छा को ईहा कहते हैं । अर्थात् ईहा विशेष की विचारणा है । इस विचारणा के पश्चात् जब ज्ञान विशेष का निश्चय करने में समर्थ हो जाता है, सु निश्चय कर लेता है वह अवाय ज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान निर्णयात्मक होता है । अवाय के द्वारा ज्ञात वस्तु का कालान्तर में निर्णीत के स्मरण में जो कारण होता है वह चतुर्थ धारणा नाम का मतिज्ञान है ।। ६१-६२॥
विशेषार्थ
सामान्य अवबोध के बाद वस्तु का ग्रहण होना अवग्रह, उसके विशेष पर्यायों के जानने की तर्कणा ईहा निर्णयात्मक ज्ञान अवाय और कालान्तर में नहीं भूलना धारणा है ।
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इस धारणा ज्ञान के भी तीन रूप हैं - अविच्युति, वासना और स्मृति । उत्पन्न होने के बाद धारणा ज्ञान जितने काल तक स्थिर रहता है अर्थात् उपयोग पलटता नहीं है, वह अविच्युति कहलाती है । उपयोग