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द्वितीय अधिकार उसको प्रयोगकर्म कहते हैं । वह प्रयोगकर्म, मन, मन, काय के भेद से तीन प्रकार का है।
समवदान कर्म-जीव आठ प्रकार के, सात प्रकार के या छह प्रकार के कर्मों का ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है, इसलिए यह सब समवदान कर्म है । समवदान का अर्थ विभाग करना है । जीव, मिथ्यात्व, असंयम, कपाय और योग से निमित्त से कर्मों को ज्ञानावरणादि रूप से आठ, सात या छह भेद करके ग्रहण करता है । इसलिए इसे समवदान कर्म कहते हैं । ___ अधःकर्म-औदारिक शरीर के निमित्त से जीव अंग छेदन, परिताप
और आरम्भ आदि नाना कार्य करता है उसे अधःकर्म कहते हैं । ___ ईर्यापथ कर्म-ईर्या अर्थात् केवल योग के निमित्त से जो कर्म होता है वह ईर्यापथ कर्म कहलाता है। यह ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक होता है क्योंकि केवल योग इन्हीं गुणस्थानों में उपलब्ध होता है। ___ तपः कर्म-रत्नत्रय को प्रगट करने के लिए जो इच्छाओं का निरोध किया जाता है वह तप कहलाता है । इसके बारह भेद हैं। छह अभ्यन्तर तप और छह बाह्य तप हैं।
तपकर्म में बारह प्रकार तपों का वर्णन करके ध्यान, धाता, ध्येय और ध्यान के फल का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है।
क्रियाकर्म में साधु श्रावकों के द्वारा की जाने वाली त्रिकाल वन्दना का स्वरूप कहा है।
क्रियाकर्म के छह अधिकार हैं। १. त्रिःकृत्वा-तीनों संध्याकाल में करना।
२. आत्माधीनता-परवश या किसी ख्याति, पूजा, लाभ की इच्छा न करके आत्मकल्याण के लिए पंच परमेष्ठी, जिनबिम्ब, जिनधर्म, जिनालय, जिनशास्त्र रूप नव देवता की त्रिकाल वन्दना करना। ___३. प्रदक्षिणा-वन्दना करते समय गुरु, जिन और जिनग्रह की तीन प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना।
४. त्रि अवनति-अवनति का अर्थ है तोन बार भूमि पर बैठकर नमस्कार करना।
५. चार शिरोनति-चार बार नमस्कार करना ।
६. आवर्तन-बारह आवर्तन । क्रियाकर्म के ये छह अधिकार है। विशेष विधि-प्रातःकाल, संध्याकाल और मध्याह्नकाल में शुद्ध मन