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अंगपण्णत्ति ( स्वाधीनता) से हाथ-पैर धोकर जिनेन्द्र के दर्शन करने से जिसका म । हर्षित हो रहा है वह भव्यात्मा सर्व प्रथम जिनदेव के आगे बैठकर नमस्कार करता है वह प्रथम अवनति है। तत्पश्चात् 'भगवान् प्रभु पादावन्दिस्ये' इत्यादि उच्चारण करके नमस्कार करता है। भूमि स्पर्श करके वह दूसरी अवनति है। तत्पश्चात् णमो अरिहंताणं' आदि सामायिक दण्डक के द्वारा आत्मशुद्धि करके कषाय सहित देह का उत्सर्ग करके ( कषाय का और शरीर से ममत्त्व त्याग करके ) जिनदेव के अनन्त गुणों का ध्यान करके तथा जिनदेव और जिनालय की स्तुति करके भूमि पर बैठना यह तीसरी अवनति है।
क्रियाकर्म में सर्व प्रथम चैत्यभक्ति के प्रारम्भ में सामायिक दण्डक के बाद में एक शिरोनति 'त्थोस्सामि' आदि पढ़कर एक शिरोनति इसी प्रकार पंच परमेष्ठी के प्रारम्भ के सामायिक दण्डक में एक शिरोनति और 'त्थोस्सामि' के अन्त में एक शिरोनति इस प्रकार दो भक्ति के चार शिरोनति होती हैं। एक-एक शिरोनति में तीन-तीन आवर्तन होते हैं अर्थात् प्रत्येक नमस्कार के प्रारम्भ में मन, वचन, काय की शुद्धि के ज्ञापन करने के लिए तीन आवर्तन किये जाते हैं यह क्रियाकर्म या देव वन्दना विधि है।
कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म, विनयकर्म ये वन्दना या क्रियाकर्म के नामान्तर है।
इस क्रियाकर्म के परिणामों से ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का कर्तन छेदन होता है । इसलिए इसको कृतिकर्म कहते हैं ।
इस देव वन्दना से पुण्य कर्म का संचय होता है अतः इसका नाम चितिकर्म भी है।
देव वन्दना में जिनदेव (अर्हन्त) आदि नव देवता की पूजा की जाती है अतः इसे पूजाकर्म कहते हैं।
देव वन्दना ( क्रियाकर्म ) के द्वारा कर्मों का संकमण, उदय, उदीरणा आदि के द्वारा निराकरण होता है, विनाश होता है अतः इसको विनयकर्म कहते हैं।
जिसे कर्मप्राभृत का ज्ञान है, और उसका उपयोग है उसको भावकर्म
कहते हैं।
इस प्रकार दश प्रकार के कर्म का नाम आदि सोलह अधिकारों के द्वारा विस्तारपूर्वक विवेचन जिस अनुयोग में है वह कर्म अनुयोग द्वारा है। इसका विशेष वर्णन वर्गणा खण्ड में किया गया है।