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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४० समवतारद्वारनिरूपणम्
७११ वैविध्यमुक्तमिति बोधगम् । अनयोरुदाहरणान्याह-'चउसहिया' इत्यादि । चतुपष्टिका-चतुष्पलमाना अर्धमागिकायाश्चतुष्पष्टितमो भाग इत्यर्थः आत्मसमनतारेण आत्मभावे समवतरति, उभयसमवतारेण तु सा स्वापेक्षया बृहन्मानायाम् अर्थात् अष्टपलमानायां द्वात्रिशिकायां अर्धमाणिकायां द्वात्रिंशतमभागरूपायां समवतरति । एवंद्वात्रिशिका पोडशिका, अष्टमागिका, चतुर्भागिका, अर्द्रमाणीच आत्मभावे उभय मावे च समस्तरन्ति । तथाहि-अष्टपलप्रमाणा द्वात्रिंशिका मात्मसमवतारेण पात्मभावे समवतरति, उभयसमवतारेण तु षोडश पलमानायां पोडशिकायां समवतरति आत्मभावेच ! षोडशिकाऽपि आत्मसमवतारेण आत्म आत्मसमवतार और दूसरा तदुभयसमवतार । इसमें पूर्वोक्त रीति के अनुसार परसमवतार की असंभविता को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने यह द्विविधता कही है, ऐसा जानना चाहिये । (चउसहिया आयसमो. यारेणं आयभावे समोपरइ) दृष्टान्तान्तर से इसी विषय को स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि-'आत्मसमवतार से जैसे चतुष्पष्टिका चारपलप्रमाणवाली अर्धमणिका का चौंसठयां भाग आत्मभाव में रहती है और ( तदुभय समोयारेणं बत्तीसियाए समोयरह ) तदुभय. समवतार से वह अपनी अपेक्षा से बृहन्मानवाली अर्थात आठपल प्रमाणवाली द्वात्रिंशिका में अर्थात् अर्धमाणिका के ३२ वें भाग में रहती है-(आयभावे य) और अपने निजरूप में भी रहती है। इसी प्रकार से द्वात्रिंशिका, षोडशिका, अष्टभागिका, चतुर्भागिका; और अर्धमाणी ये सब आत्मभाव में एवं उभवभाव में समवतरित होती हैं। जैसे-(पत्तीसिया आयसमोयारेणं आयभावे समायरइ, तदुभयमनोयारेण सालसिवाए समायरइ, ओयभावे य) अष्टपल प्रमाणवाली દ્રષ્ટાન્તાન્તરથી આ વિષયને સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે “આત્મસમવ તારથી જેમ ચતુષટિકા ચાર પલ પ્રમાણુવાળી અર્ધમાણિકાને ચાસઠમાં सारा सामनावमा २७ छ, मन (तदुभयसमोयारेणं बत्तीसिसए समोयरइ) તદુભય સમવતારથી તે પોતાની અપેક્ષાથી બ્રહન્માન યુકત એટલે કે આઠ પલ પ્રમાણ યકત કાત્રિશિકામાં એટલે કે અર્ધમણિકાના ૩૨ માં ભાગમાં २७. (आयभावे य) भापताना निor ३५भी ५ २ छे. या प्रभाव હત્રિશિકા, ષોડશિકા, અષ્ટભાગિકા, ચતુર્ભાગિતા અને અર્ધમાણી આ સર્વે मामलामा भर GAINRI समवतरित डाय छ. म , (बत्तीसिया बायसमोयारेणं वायभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेण सोलसियाए समोयरड मायभावे य) सपस प्रमाण युत निशि मारम समतारनी अपेक्षा