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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २२९ प्रदेशहष्टान्तेन नयप्रमाणम् अयं भाव:-भक्तव्यः प्रदेश इति कथनेन पञ्चपकारक एव पदेशो भाति, स्वस्थ पदेशस्यैव ग्रहणात् , परकोयप्रदेशस्तु न गृह्यते, तस्यार्थक्रियासाधकत्वाभावादेतन्मतानुसारेणासत्त्वादिति । एवं वदन्तम् ऋजुपुत्रं सम्पति शब्दनयो मणति-- यत्व मणसि, भक्तव्यः प्रदेश इति, तम युज्यते । कुनो न युज्यते ? इत्याह-यदि तव मते भक्तव्यः प्रदेशः, एवं तर्हि तब मते धर्मप्रदेशोऽपि स्याद् धर्मप्रदेशः, स्यादधर्ममदेशः स्यादाकशपदेशः, स्थानीयमदेशः, स्थात् स्कन्धपदेशः । एक इसका यह है कि जय 'भक्तव्यः प्रदेश:' ऐसा कहा जाता है, तब प्रदेश पांच प्रकार का ही सिद्ध होता है, क्योंकि अपने २ प्रदेश का ही इस कथन से ग्रहण होता है। परसंचाधी प्रदेश का नहीं। क्योंकि परसंबन्धी प्रदेश में अर्थक्रिया के प्रतिसाधनस्व का अभाव है। इसलिये इस नय की मान्यतानुसार परपदेश असतरूप है । ( एवं वयंतं) इस प्रकार कहनेवाले (उज्जुसुयं) ऋजुमूत्रनय से (संरह) उसी समय (सहनयो भणह) शन्दनय ने कहा-(जं भणसि भायन्यो पएसो तं न भवह) जो तुम 'भक्तव्यः प्रदेशः 'ऐसा कहते हो, वह कहना तुम्हारा ठीक नहीं बनता है (कम्हा) क्योंकि (जह भइयव्यो पएसो) यदि 'प्रदेश भजनीय है' ऐसा तुम्हारा मत हो तो (१वं ते धम्मपएसो विसिय धम्मपएसो सिय अधम्माएसो, सिय आगासपएसो, सिय जीव पएसो सिय खंधपएसो) इस प्रकार के मत से धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है, वह धर्मास्तिकाय का भी हो सकता है, अधर्मास्तिकाय का सन तात्पर्य या प्रमाणे छ , “भक्तव्यः प्रदेशः" मा शत अपामा मात्र છે ત્યારે પ્રદેશના પ્રકારો પચ જ છે. આમ સિદ્ધ થાય છે. કેમકે આનાથી પાતપિતાના પ્રદેશનું જ ગ્રહણ થાય છે. પર સંબંધી પ્રદેશનું ગ્રહણ થતું નથી કારણ કે પરસંબંધી પ્રદેશમાં અર્થ ક્રિયા પ્રત્યે સાધકતત્વને અભાવ છે.
टमा भाट मा नयनी मान्यता भुय ५२ प्रदेश असत् ३५ छ. (एवं वयंत) या नारा (उज्जुसुर्य) *गुसूत्रनयन (संपइ) ते सभये (सहनयो भणइ) शहनये है (ज भणसि भइयव्वो पएसो त न भवइ) तमे "भक्तव्यः प्रदेशः" मा ४ छो, तो माम यु योग्य नथी (कम्हा) . (जइभइयव्यो पएसो) ने प्रदेश सनीय छ, वा मान्यता छ । (एवं ते धम्म पएसो वि सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपरसो, सिय आगासपएसो सिय जीवपएसो सिय खंधाएसो) मा कतना भतथा पास्तियना २ प्रश छ, त માસ્તિકાયને પણ થઈ શકે છે, અધમતિકાયનો પણ થઈ શકે છે, આકાશા