________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा प्रथम नाम - निग्रंथ गच्छ सुधर्मास्वामीजी की इस परंपरा का प्रथम नाम 'निग्रंथ परंपरा' था। ग्रंथ का अर्थ गांठ यानि परिग्रह, अतः निर्ग्रन्थ शब्द का अर्थ 'बाह्य' और अभ्यंतर परिग्रह से मुक्त होता है। निष्परिग्रहता, निरीहता आदि गुणों के कारण जैन श्रमणों को 'निग्रंथ' इस नाम से आगमों में, अशोक आदि के पुरातन शिलालेखों में तथा बौद्ध साहित्य में भी संबोधित किया है। अतः ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में श्रमण परंपरा 'निग्रंथ परंपरा' के रूप से प्रसिद्ध थी। यह श्रमण परंपरा का प्रथम नाम था। यह भी जानने लायक है कि उस समय भगवान पार्श्वनाथजी की परंपरा के गणधर से विचार विमर्श करके भगवान महावीर के शासन में प्रवेश किया। उनकी शिष्य परंपरा भी निग्रंथ परंपरा का अभिन्न अंग बन गया। फिर भी वह परंपरा 'पार्श्वनाथ संतानीय' 'उपकेश गच्छ' और 'कंवला गच्छ' इन नामों से प्रसिद्ध हुई। यह परंपरा श्वेतांबरीय परंपरा ही थी। उस तरह सुधर्मा स्वामीजी की यह परंपरा आठ पाट तक 'निग्रंथ गण' के रूप में पहचानी जाती थी। श्रमण भगवान महावीर के समय में और उनके निर्वाण के बाद भी श्रमण संघ का विचरण मुख्यतया मगध देश एवं उनके आस-पास के क्षेत्रों में था। परंतु ऐतिहासिक आधारों से पता चलता है कि दो बार ऐसे कारण उपस्थित हुए जिस कारण से श्रमणों का विचरण दूर-सुदूर क्षेत्रों तक होने लगा। वे कारण इस तरह के थे(1) वीर निर्वाण संवत् 148 से 160 में बारह वर्ष का भीषण अकाल पड़ने से 1. बाह्य परिग्रह - धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु (मकान आदि) रुप्य (चांदी), सुवर्ण, कुप्य (तांबा) द्विपद (मनुष्य चाकर), चतुष्पद (पशु) 2. अभ्यंतर परिग्रह - पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, वेद, हास्य-रति-अरति-भय शोक-जुगुप्सा, क्रोध-मान-माया-लोभ, मिथ्यात्व। 3. लोहित्याभिजाति नाम ‘निग्गंथो' ‘एकसाटिक' इति वदन्ति-मज्झिमनिकाय (बौद्ध त्रिपिटक) 4. इसी परंपरा में हुए आ. रत्नप्रभसूरिजी ने वीर निर्वाण 70 में उपकेश नगर (ओसियाजी) के राजा आदि को प्रतिबोध देकर जैन बनाया और ओसवाल वंश की स्थापना की। तथा उन्होंने ही वहाँ पर भगवान् महावीरस्वामी की प्रतिष्ठा की थी।