SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा निग्रंथों की संख्या घट गई, श्रुतज्ञान की भी बड़ी हानि हुई। ऐसी स्थिति में श्रमणों की संख्या बढ़ाना, सुरक्षा करना, श्रुतज्ञान की रक्षा करना ये दोनों प्रमुख कर्तव्य थे। अतः अकाल के कारण समुद्र स्तरीय विस्तार की ओर अलग-अलग विचरण होने लगा। (2) उसके करीबन सौ वर्ष पश्चात् प्रायः वीर निर्वाण 240 से 290 तक सम्राट संप्रत्ति ने जैन धर्म के प्रचार हेतु सुविधायें प्रदान की एवं श्रमण संघ को धर्म प्रचार करने की भावपूर्वक विनंति की। अतः धर्म-प्रभावना के लाभ को ध्यान में रखकर भी निग्रंथों का दूर-दूर क्षेत्रों में विचरण हुआ। इन दोनों कारणों से दूर-दूर विचरने वाले साधु समुदायों के तत्कालीन आचार्य और विचरण क्षेत्र आदि के नामों से भिन्न-भिन्न नाम, कुल, शाखाओं के रूपसे निग्रंथ गण प्रसिद्ध हुआ। जो संक्षेप में इस प्रकार है श्री भद्रबाहुस्वामीजी के शिष्य गोदासजी से गोदास गण, आर्य महागिरिजी के शिष्य उत्तरजी और बलिस्सहजी से बलिस्सह गण, आर्य सुहस्तिसूरिजी के शिष्यों से उद्देह, चारण, वेसवाडिय, मानव और कोटिक गण निकले। इन सभी गणों के भिन्न-भिन्न कुल और शाखायें भी उत्पन्न हुई। ये सभी निग्रंथ गच्छ की ही अभिन्न शाखाएँ थीं। ReObse 1 विशेष के लिये देखें 'कल्पसूत्र स्थविरावली'। 8
SR No.036510
Book TitlePrabhu Veer Ki Shraman Parmpara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherMission Jainatva Jagaran
Publication Year2017
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy