________________ हृदय की बात... इतिहास!! राष्ट्र, धर्म एवं संस्कृति का यह वह अङ्ग है, जिसको जाने बिना व्यक्ति का राष्ट्र, धर्म और संस्कृति के प्रति श्रद्धा-समर्पण भाव प्राणवंत नहीं बन सकता है। इतिहास वह दर्पण है जो भूतकाल में हुई घटनाओं को यथावत् दिखलाकर भूलों को सुधारने एवं आदर्श जीवन निर्माण करने की प्रेरणा देता रहता है। श्रमण परंपरा का इतिहास बताता है कि धर्म और संस्कृति की उन्नति एवं रक्षण हेतु महापुरुषों ने कैसा भगीरथ पुरुषार्थ किया एवं बलिदान दिया था। उसे जानने से ही धर्म, संस्कृति एवं उसको संरक्षित करने वाली श्रमण परंपरा के प्रति श्रद्धा बहुमान एवं समर्पण भाव की पावन गंगा हृदय रूपी मानस सरोवर में प्रगट हो सकती है। आज कई जैनों को इतिहास का सही ज्ञान न होने से-तपागच्छ की उत्पत्ति कब हई ? कहाँ से हुई? वह कितना प्राचीन है ? क्या अन्य गच्छ उनसे भी प्राचीन है? इत्यादि जिज्ञासाएँ हृदय में उठती रहती है। अतः उनके समाधान हेतु प्रभुवीर से चली श्रमण परंपरा का यहाँ संक्षिप्त इतिहास दिया है, क्योंकि तपागच्छ एवं प्रभु वीर की श्रमण परंपरा में कोई अन्तर नहीं है, अतः उसका इतिहास वहीं से प्रारंभ होता है, जब से प्रभुवीर की श्रमण परंपरा प्रारंभ हई थी। इतिहास लेखन का यह प्रयास मात्र उक्त जिज्ञासाओं के संतोष हेतु, उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्रीओं के आधार से किया है। सत्य ज्ञान के बल से प्रगट हुआ, गच्छ का स्वाभिमान सत्यमूलक होने से आराधना की पुष्टि कराने वाला होता है। परंतु, सत्य के पक्षपात से रहित वह ही गच्छराग यानी 'दृष्टिराग' स्वरूप बनकर आराधना में बाधक बनता है। अतः आशा है की सत्य के शोधक एवं गुणग्राही वाचक वर्ग प्रस्तुत किये गये इतिहास का मध्यस्थतापूर्वक परिशीलन करके सत्य का साक्षात्कार करेंगे एवं तदनुसार आराधना करके परंपरा से मुक्ति सुख को प्राप्त करेंगे। इस ऐतिहासिक लेख में तटस्थता पूर्वक सत्य को सरल एवं मधुर शब्दों से प्रस्तुत करने का यथाशक्य प्रयास किया गया है, फिर भी कोई क्षति रह गई हो या किसी की भावना को ठेस पहुँची हो तो मिच्छा-मि-दुक्कडम्। -भूषण शाह 50