SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा तपागच्छ के चमकते सितारे !! जगच्चंद्रसूरिजी तक हुए पूर्व आचार्यों ने जो शासन सेवा की थी, वह अजोड़ थी और प्रायः सर्वजन विदित भी है। जगच्चंद्रसूरिजी के बाद हए श्रमण भगवंतों ने भी जो साहित्य निर्माण, शासन सेवा तथा क्रियाशैथिल्य के उन्मूलन हेतु प्रयास किये हैं, उनका विस्तार से वर्णन करें तो एक नया ग्रंथ बन जाता है। उदाहरण के रूप में देवेन्द्रसूरिजी के कर्मग्रंथ, भाष्यत्रय, श्राद्ध दिनकृत्य, धर्मरत्न प्रकरण एवं वन्दारुवृत्ति, धर्मघोषसूरिजी का संघाचार भाष्य एवं श्राद्ध-जीतकल्प, सोमप्रभसूरिजी का यति जीतकल्प, सोमतिलकसूरिजीकृत बृहन्नव्यक्षेत्र समास, गुणरत्नसूरिजी का क्रियारत्न समुच्चय, षड्दर्शन समुच्चय बृहद्वृत्ति एवं क्षेत्र समास, सोमसुन्दरसूरिजी प्रतिष्ठित राणकपुर तीर्थ विश्व विख्यात है तथा आज भी इन्हीं के द्वारा प्रतिष्ठित पंचधातु की सैकड़ों प्रतिमाजी भारतवर्ष के गाँव-गाँव व नगर-नगर में मिलते हैं। मुनिसुंदरसूरिजी का संतिकरं-स्तोत्र, अध्यात्म कल्पद्रुम, रत्नशेखरसूरिजी का श्राद्धविधि, कर्माशाह द्वारा किये गये श्री शत्रुजय महातीर्थ के 16वें उद्धार के मुख्य प्रतिष्ठाचार्य आ. श्री विद्यामंडन सूरिजी द्वारा वर्तमान के तीर्थाधिपति श्री आदिनाथ प्रभु की अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठा, हीरविजयसरिजी द्वारा अकबर को प्रतिबोध कर अमारि प्रवर्तन, शांतिचंद्रोपाध्यायजी की जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति टीका, अवधूत योगी आनंदघनजी महाराज के अध्यात्मिक पद तथा चौवीशी जो अत्यंत प्रसिद्ध है।' महो. विनयविजयजी के शांतसुधारस, लोकप्रकाश, श्रीपाल रास आदि ग्रंथ तथा लघु हरिभद्र के नाम से प्रसिद्ध महो. यशोविजयजी के अत्यन्त उपादेय ग्रंथों की सूचि तो बहुत लंबी है, जिसमें से कई तो लुप्त हो गये हैं, फिर भी कई ग्रंथ वर्तमान में उपलब्ध हैं, जिनकी महत्ता सर्वजन प्रसिद्ध है। 1. तपागच्छ में अवधूत योगी आनंदघनजी महाराज का एक गौरवपूर्ण विशिष्ट स्थान है। वे पं. परमानन्दगणिजी के शिष्य थे एवं क्रियोद्धारक पं. सत्यविजयजी के लघुभ्राता थे। महो. यशोविजयजी भी अध्यात्म के विषय में आनंदघनजी से अत्यंत प्रभावित थे। उन्होंने अष्टपदी स्तुति की रचना करके आनंदघनजी के प्रति श्रद्धांजली अर्पित की है। ज्ञानविमलसरिजी ने भी आनंदघनजी के स्तवनों पर टबा वगैरह की रचना की है। (आधार - सम्मेतशिखर रास-पं. रंगविमलगणिजी, वि.सं. 1927, जैन परंपरानो इतिहास, भाग-4, पृ. 467) 20
SR No.036510
Book TitlePrabhu Veer Ki Shraman Parmpara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherMission Jainatva Jagaran
Publication Year2017
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy