________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा देवेन्द्रसूरिजी की क्रिया-चुस्तता, अंचलगच्छ की पट्टावली में भी (महेन्द्रसूरिजी के वर्णन के समय में) प्रशंसी गयी है। उसी तरह सोमसुंदरसूरिजी, हेमविमलसूरिजी, पं. सत्यविजयजी ने भी शिथिलाचार के उन्मूलन हेतु विशिष्ट क्रियोद्धार किये थे। विशेषः पिछले 150 साल में इस परंपरा के विजयानंदसूरिजी (आत्मारामजी), सिद्धिसूरिजी, नेमिसूरिजी, बुद्धिसागरजी, नीतिसूरिजी, सागरानन्दसूरिजी, मोहनलालजी, वल्लभसूरिजी, लब्धिसूरिजी, प्रेमसूरिजी, विजयधर्मसूरिजी, रामचंद्रसूरिजी, हिमाचलसूरिजी, रामसूरिजी (डेहलावाला), भुवनभानुसूरिजी, कलापूर्णसूरिजी आदि अनेक प्रभावक आचार्यों ने साहित्य निर्माण, श्रमण निर्माण, तीर्थ रक्षा, श्रुतरक्षा, श्रुत पुनरोद्धार, तीर्थोद्धार, श्रावक जागृति आदि अनेक क्षेत्रों में शासन की महती सेवा की है। जिनशासन में मैत्री भाव, नवकार महामंत्र आराधना, आयम्बिल-तप तथा अध्यात्म की नयी चेतना को जगानेवाले, अध्यात्मयोगी पं. भद्रंकरविजयजी भी इसी परंपरा में हुए हैं। इसी तरह श्रुत ज्ञान की अनुपम भक्ति करने वाले आगमप्रभावक पुण्यविजयजी एवं जंबूविजयजी तथा जैन इतिहास को विशेष प्रकार से लाने वाले बंधुत्रिपुटी (दर्शनविजयजी म., ज्ञानविजयजी म., न्यायविजयजी म.) एवं इतिहासवेत्ता पं. कल्याणविजयजी म. भी इसी परंपरा के महापुरुष थे। ___ वर्तमान में भी प्रायः 10 हजार से भी अधिक श्रमण-श्रमणी भगवंत जिनशासन की अनुपम सेवा कर रहे हैं। 21