________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा तपागच्छ किसी आचार्य से उत्पन्न नहीं हुआ, परंतु श्रमण महावीर स्वामी, गुरु गौतमस्वामी, सुधर्मास्वामी से चली आ रही अविच्छिन्न परंपरा का ही नामांतरण मात्र है। आज भी परंपरा से चली आ रही योगोद्वहन की क्रियापूर्वक पदवीयाँ तपागच्छ में करायी जाती है। तपागच्छ के इतिहास एवं उसकी मान्यता में किसी एक मान्यता विशेष का आग्रह नहीं है-पूर्वाचार्यों और शास्त्रों की वफादारी मात्र है। अन्य गच्छों की पट्टावलियों एवं ग्रंथों में भी तपागच्छ की उत्पत्ति के लिये किसी मतभेद को कारण नहीं बताया गया है। इससे भी सिद्ध होता है कि 'तपागच्छ' तो केवल प्राचीन श्रमण परंपरा ‘बड़ गच्छ' का नामांतरण है। तपागच्छ की पट्टावलियों और इतिहास में श्री सुधर्मास्वामी से लेकर आज तक की आचार्य परंपरा का परस्पर विसंवाद रहित सुव्यवस्थित क्रम एवं अतिश्योक्ति रहित वर्णन मिलता है, वह भी इसी बात को प्रमाणित करता है। तपागच्छ की पट्टावलियों में प्रायः पूर्वाचार्यों के दर्शन ज्ञान-चारित्र की आराधना एवं तप-त्याग की शुद्धि का ही मुख्य रूप से वर्णन है। प्रासंगिक जिन शासन की प्रभावना हेतु कोई चमत्कार करना पड़ा तो उसका वर्णन भी गौण रूप से मिलता है अर्थात् उस चमत्कार का भार देकर प्रचार नहीं किया गया है। कहीं भी पूर्वाचार्यों के मंत्र-तंत्र एवं चमत्कारों को अथवा जाति-गोत्र आदि की स्थापना को महत्त्व न देना यह भी तपागच्छ की निःस्पृहता, निरीहता एवं शासन के प्रति समर्पण भाव को बताता है। अतः “वि.सं. 1285 में तपागच्छ की उत्पत्ति हई और अन्य गच्छ उससे भी पहले निकले" यह मान्यता भ्रान्ति मात्र है, क्योंकि तपागच्छ तो पहले से चली आ रही श्रमण परंपरा ही है। 1. देखें खरतरगच्छ पट्टावली 2329 और 2333, पट्टावली पराग, पृ. 370/380 2. "भगवान महावीर की अठारहवीं शताब्दी' जगच्चंद्रसूरि आपकी कठोर तपश्चर्या से मुग्ध बन चितौड़ के महाराणा ने तपा बिरुद दिया, जिसमें बडगच्छ का नाम तपागच्छ हुआ। (कमजोर कड़ी कौन? पृ. 133-खरतरगच्छ के आचार्य जिनपीयूषसागरजी म.सा.) 19