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________________ प्रभुवीर की श्रमण परंपरा गुरुओं के नाम। इस तरह गण-कुल-शाखा को ही याद करना यह प्राचीन श्रमण सामाचारी का द्योतक है। 'गच्छ' शब्द का उपयोग बाद में प्रचलित हआ है। 'दिग-बंधन' में 'तपागच्छ' का उल्लेख नहीं किया जाता है, इससे भी सूचित होता है कि 'तपागच्छ' यह नाम तो लोक प्रसिद्धि के कारण व्यवहार में रूढ हो गया है। फिर भी मौलिक विधान में तपागच्छीय श्रमण-परंपरा तो अपने आप को मूल नाम से ही संबोधित करती है। इससे ही सिद्ध होता है कि 'तपागच्छ' नया उत्पन्न नहीं हुआ है, परंतु मूल परंपरा का नामांतरण मात्र है। इस प्रकार सुधर्मास्वामी से चली श्रमणपरंपरा के छः नाम मुख्यरूप से माने जाते हैं 1. निग्रंथ, 2. कोटिकगण, 3. चान्द्रकुल, 4. वनवासी गच्छ, 5. बड़ गच्छ, 6. तपागच्छ। ये नाम इन आचार्यों से क्रमशः प्रचलित हुए : 1. सुधर्मास्वामीजी, 2. आर्यसुस्थितजी, 3. चंद्रसूरिजी, 4. समंतभद्रसूरिजी, 5. सर्वदेवसूरिजी, 6. जगच्चंद्रसूरिजी। इस तरह वि. सं. 1285 में 44वीं पाट के आ. जगच्चंद्रसूरिजी को तप गुण के प्रभाव से मिले 'तपा' बिरुद के कारण श्रमण परंपरा ने 'तपागच्छ' यह छट्ठा नाम धारण किया। 'नामकरण होना' और 'उत्पत्ति होना' दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। नयी उत्पत्ति मूल परंपरा से कुछ मतभेद को लेकर होती है और वह मतभेदमान्यता प्रायः उस गच्छ के नाम से जुड़ जाती है। अथवा वह गच्छ उस विशेष मान्यता से ही पहचाना जाने लगता है। जैसे कि - 'इस गच्छ की तो यह मुख्य मान्यता है' इत्यादि। यह बात तपागच्छ के नाम में नहीं है। तपागच्छ की पट्टावलियों में किसी एक आचार्य को आद्यपुरुष के रूप में नहीं बताया है। वर्तमान में भी तपागच्छ में किसी भी गुरु की महिमा इतनी विशेष रूप से नहींगायी जाती है कि जिससे तीर्थंकरों से भी ज्यादा गुरुओं की बोलबाला हो जावे। बड़े आलिशान गुरु मंदिर आदि बनाकर उनमें तीर्थंकरों की नाममात्र स्थापना करना तपागच्छ में उपादेय नहीं माना जाता है। तपागच्छ के मंदिरों में प्रायः गौतमस्वामी एवं सुधर्मास्वामी की प्रतिमाएँ विशेष रूप से देखी जाती हैं। अतः स्पष्ट है कि 1 आजकल देखादेखी व अन्य गच्छों के गुरुमंदिरों का प्रचलन देख तपागच्छ में भी यह प्रचलन शुरु हो गया है... जो गलत है। ( 18
SR No.036510
Book TitlePrabhu Veer Ki Shraman Parmpara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherMission Jainatva Jagaran
Publication Year2017
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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