________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा पंचम नाम-बड़ गच्छ भगवान महावीरस्वामी के 35वें पाट पर श्री उद्योतनसूरि हुए। उन्होंने मथुरा तीर्थ की अनेक बार और सम्मेतशिखर तीर्थ की पाँच बार यात्रा की थी। एक बार आबु तीर्थ की यात्रार्थ पधारे थे। तलहटी के टेली ग्राम की सीमा पर एक विशाल बड़ वृक्ष के नीचे बैठे थे। उसी समय आकाश में सुन्दर 'ग्रह योग' हुआ था। आचार्यश्री ने शुभ और बलवान ग्रहयोग को पहचाना और उसी समय विक्रम सं. 994 (वीर निर्वाण सं. 1464) में सर्वदेव प्रमुख आठ शिष्यों को आचार्यपद पर आरूढ़ किया। मतांतर से सर्वदेवसूरिजी को ही आचार्य पदवी दी। तत्पश्चात्-‘आपकी शिष्य संपदा इस वटवृक्ष की तरह फैलेगी।' यह आशीर्वाद देकर उद्योतनसूरिजी ने सपरिवार अजारी की ओर विहार किया। इस तरह बड़ के नीचे सूरिपद प्राप्त होने से उन आचार्यों का शिष्य परिवार ‘बड़ गच्छ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनमें भी सर्वदेव सूरिजी की लब्धि शिष्य संपदा के विषय में गौतमस्वामीजी जैसी थी। अतः उनका शिष्य परिवार बढ़ने लगा। उनकी परंपरा 'बृहद् गच्छ' अथवा 'बड़ गच्छ' के नाम से विशेष रूप से प्रकट हुई। 36वीं पाट से बना यह श्रमण परंपरा का पाँचवा नाम था। चांद्र कुल इस तरह से बड़ गच्छ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जिसका प्रभाव एवं विस्तार पूर्वोक्त तीन गच्छ एवं तत्कालीन शाखा रूप में निकले अन्य गच्छों से विशेषतः ज्यादा था। विक्रम की 11वीं शताब्दी तक के ग्रंथों में गच्छों के मतभेदों का उल्लेख नहीं मिलता जैसा हाल में अधिक मास में पर्युषणा, संवत्सरी, तिथि, सामायिक, पौषध, स्त्रियों द्वारा प्रभु पूजा, मुहपत्ति, स्तुति आदि विषय में मतभेद दिखते हैं। विक्रम की 11वीं शताब्दी के बाद के गच्छ पहले बताये गए नागेन्द्र आदि गच्छों से भिन्न है। नवीन गच्छ कितनेक अंशों में सिद्धान्त भेद और क्रिया भेद आदि को लेकर अलग पड़े हैं। इस कारण इन गच्छों को प्राचीन गच्छों की कक्षा में नहीं रखे जा सकते हैं। बड़ गच्छ के शासन काल में सामाचारी आदि को लेकर पुनमिया (विक्रम सं. 1159), चामुंडिक (वि. सं. 1144), खरतर (वि. सं. 1204)', अंचल गच्छ' 1. अचलगच्छ के शतपदी ग्रंथ (रचना काल सं. 1294) में भी खरतरगच्छ की उत्पत्ति (वेदाभ्रारुण काले 1204) का ही उल्लेख मिलता है। 14