________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा चतुर्थ नाम - वनवासी गच्छ आचार्य चन्द्रसूरिजी की पाट पर आचार्य समन्तभद्रसूरि हुये। ये आचार्य पूर्वविद् थे और घोर तपस्वी थे। अधिकांशतः देवकुल, शून्यस्थान और वनों में स्थिरता करते थे। उसी समयांतर में श्वेतांबर-दिगम्बर के भेद पड़ चुके थे- फिर भी दिगंबर मत में इन आचार्य के वचन निःशंक भाव से 'आप्त वचन' माने गये हैं। हालाँकि उनके दिगंबर होने का एक भी प्रमाण उनके लिखे ग्रंथों में नहीं है। परन्तु उनके उत्कट त्याग, आगमानुसारी क्रियाधारकता और वन-निवास आदि गुणों के कारण दिगंबरों ने भी उन्हें अपनाया है। वन में रहने के कारण जनसामान्य उन्हें और उनके शिष्य समुदाय को 'वनवासी' नाम से पहचानने लगा। इस तरह वीर निर्वाण 700 के आसपास सोलहवीं पाट से निग्रंथ गच्छ का चौथा नाम 'वनवासी गच्छ' हो गया। ऐसा होने पर भी 'चांद्र कुल' नाम विशेष रूप से प्रसिद्ध रहा / ऐसा तत्कालीन शास्त्रों से ज्ञात होता है। REDisa 13