________________ नामायरिएहिं समं, करिअ वियारं वियाररहिएहिं। वसइहिं निवासो साहूण ठाविओ ठाविओ अप्पा।।67।। परिहरिअगुरुकमागए,-वरवत्ताए वि गुज्जरत्ताए। -वसहि विहारो (निवासो) जेहिं, फुडीकओ गुज्जरत्ताए।।68।। तिजयगयजीवबंधू, जब्बंधू बुद्धिसागरो सूरी। कयवायरणो वि न जो, विवायरणकारओ जाओ।।69।। -सुगुणजनजणियभद्दो, जिणभद्दो जविणेयगणपढमो।.... उपर्युक्त गाथाओं में ‘गणधर सार्द्धशतककार' जिनदत्तसूरिजी ने चैत्यवासियों के साथ जिनेश्वरसूरिजी का शास्त्रार्थ होने और वसतिवास का प्रमाणित होना बड़ी खूबी के साथ बताया है, परन्तु राजा की तरफ से जिनेश्वरसूरिजी को 'खरतर' बिरुद मिलने का सूचन तक नहीं है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जिनदत्तसूरिजी के 'गणधरसार्द्धशतक' का निर्माण हुआ तब तक खरतर'नाम व्यवहार में आया नहीं था, अन्यथा जिनदत्तसूरिजी इसकी सूचना किये बिना नहीं रहते। हरिभद्रसूरिजी चैत्यवासी थे ‘ऐसी दन्तकथा के खण्डन में जिनदत्तसूरिजी ने इस प्रकार लिखा है: उइयंमि मिहिरि भई, सुदिट्ठिणो होइ मग्गदसणओ। तह हरिभद्दायरिए, भद्दायरिअम्मिं उदयमिए।।56।। जं पड़ केइ समनामभोलिया भोऽलियाई जंपंति। चेइवासि दिक्खिओ सिक्खिओ य गीयाण तं न मयं।।57॥ हरिभद्रसूरिजी के सम्बन्ध में उनके चैत्यवासी होने की दन्तकथा का खण्डन करने के लिए आप तैयार हो गए हैं तो जिनेश्वरसूरिजी को राजसभा में 'खरतर'बिरुद मिलने की वे चर्चा न करें, यह बात मानने काबिल नहीं है। इतना ही नहीं, ‘गणधर सार्द्धशतक' के उपर जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य कनकचंद्रगणिजी ने सं. 1295 में टीका लिखी थी। उसी के आधार से सं. 1676 में पद्ममंदिर गणिजी ने भी संक्षेप में टीका रची, उसमें भी 'खरतर' बिरुद की बात नहीं है। गणधर-सार्द्धशतक के, ऊपर दिये गये श्लोक 66, 67 का इस टीका में इस तरह का वर्णन मिलता है:___ न्यायेन 'अणहिल्लवाडए' इत्यस्यामपि गाथायां संबध्यते-यैः श्रीजिनेश्वराचार्यैः अणहिल्लपाटके अणहिल्लपाटकाभिधाने पत्तने मध्येराजसभं राजसभाया इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /099