________________ मध्ये ‘परे मध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठ्या वा' इत्यव्ययीभावसमासः (हेम. 3-1-30), प्रविश्य=स्थित्वा लोकश्चागमश्च तयोरनुमत-सम्मतं यत्र, एवं यथा भवति कृत्वा नामाचार्यैःसह विचारं धर्मवादम् यैः कीदृशैः? इत्याह-'वियाररहिएहिं' विचाररहितैरिति विरोधः , अथ च विकाररहितः निर्विकारैरित्यर्थः। वसतौ निवासः=अवस्थानं साधूनां स्थापितः प्रतिष्ठितः, स्थापितः = स्थिरीकृतः आत्मा। वसतिव्यवस्थापनं चाणहिल्लपाटकेऽकारि। कीदृशे तस्मिन् ?.... 68वीं गाथा की टीका इस प्रकार है अमुमेवार्थ पुनः सविशेषमाह-‘वसहिविहारो' इत्यादि। वसत्या चैत्यगृहवासनिराकरणेन परगृहस्थित्या सह विहारः= समयभाषया भव्यलोकोपकारादिधिया ग्रामनगरादौ विचरणं वसतिविहारः, स यैर्भगवद्भिः स्फुटीकृतः सिद्धान्तशास्त्रान्तः परिस्फुरन्नपि लघुकर्मणां प्राणिनां पुरः प्रकटीकृतः। कस्याम् ? गूर्जरात्रायां= सप्ततिसहस्रप्रमाणमण्डलमध्ये। किं विशिष्टायाम् ? परिहृतगुरुक्रमागतवरवार्तायामपि, परिहृता-श्रवणमात्रेणापि अवगणिता गुरुक्रमागता=गुरुपारम्पर्यसमायाता वरवार्ता विशिष्टशुद्धधर्म्मवार्ता यया सा तथा तस्याम्, अपिः सम्भावने-नास्ति किमप्यत्रासम्भाव्यं घटत एवेत्यर्थः। इसमें खरतर बिरुद का बिलकुल उल्लेख नहीं है। पं. कल्याणविजयजी का सचोट कथन 14.इतिहासवेत्ता पं. कल्याणविजयजी ने पट्टावली पराग' हस्तलिखित प्रत के आधार से बताया है कि सर्वराजगणिजी की गणधरसार्द्धशतक की लघुवृत्ति तथा सुमतिगणिजी की बृहवृत्ति में भी खरतर बिरुद की बात नहीं है। देखिये उन्हीं के शब्द : पट्टावली नम्बर 2327 यह पट्टावली वास्तव में 'गणधर-सार्द्धशतक' की लघु टीका है, यह लघुवृत्ति 43 पत्रात्मक है, इसके निर्माता वाचक सर्वराजगणि हैं कि जिनका सत्तासमय विक्रम की 15वीं शताब्दी है, वृत्तिकार ने वृत्ति के उपोद्घात में आचार्य जिनदत्तसूरिजी को अनेक प्रकार के ऐसे विशेषण दिए हैं, जो पिछले लेखकों ने इनके जीवन के साथ जोड़ दिये हैं, जैसे- 'भूतप्रेत-निरसन, योगिनीचक्रप्रतिबोधक, कुमार्गनिरसन, प्रतिवादिसिंहनादविधान श्रीत्रिभुवनगिरिदेव / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /100