________________ नियमित, पंचसप्तयतिवारण, श्री पार्श्वनाथ (नव) फण धारण, वामावतीरात्रिकस्थापन, निरन्तरागच्छद्गच्छयान, सुरासुरविरचितांघ्रिसेवन, इत्यादि विशेषणों में अधिकांश विशेषण ऐसे हैं, जो बृहदवृत्ति में नहीं है, इससे यह प्रमाणित होता है कि या तो यह लघुवृत्ति बृहवृत्ति का अनुसरण करने वाली नहीं है, यदि यह शब्दशः- बृहवृत्ति का अनुसरण करती है तो इसके उपोद्घात को किसी अर्वाचीन विद्वान् ने बिगाड़कर वर्तमानरूप दे दिया है, इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ खरतरगच्छ की पट्टावलियों में होना अस्वाभाविक नहीं, कुछ वर्षों पहले इसी लघुवृत्ति को हमने मुद्रित अवस्था में पढ़ा था, जिसमें यह छपा हुआ था कि 'अणहिल पाटण के राजा दुर्लभराज ने श्री जिनेश्वरसूरिजी को चैत्यवासियों को जीतने के उपलक्ष्य में 'खरतर' बिरुद प्रदान किया था, वही लघुवृत्ति हमारे पास हस्तलिखित है और इसके कर्ता भी वाचक सर्वराज गणि हैं, परन्तु इस लघुवृत्ति की हस्तलिखित वृत्ति में ‘खरतर बिरुद देने की बात कहीं नहीं मिलती और न उपोद्घात छोड़कर जिनदत्तसूरि के जीवन में किसी चमत्कार की बात का ही उल्लेख मिलता है। (पट्टावली पराग-पृ. 354) ___ इस संबंध में आचार्य श्री जिनदत्तसूरि निर्मित 'गणधर सार्द्धशतक' को हमने ध्यान पूर्वक पढ़ा है। जिनदत्तसूरिजी ने अपने इस ग्रंथ में 'खरतर विरुद' मिलने का कोई सूचन नहीं किया, विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में निर्मित सुमतिगणि की 'गणधर सार्द्धशतक की बृहवृत्ति' को भी हमने अच्छी तरह पढ़ा है। उसमें आचार्य जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, बुद्धिसागर, जिनचंद्रसूरि और जिनवल्लभसूरि तथा ग्रन्थकर्ता श्री जिनदत्तसूरि के सविस्तार चरित्र दिए गए हैं, चैत्यवासियों के साथ वसतिवास के सम्बन्ध में चर्चा होने की बात सूचित की है, परन्तु किसी भी राजा द्वारा जिनेश्वरसूरि को कोई बिरूद मिलने की बात नहीं, ऐसी कोई घटना बनी होती तो जिनदत्तसूरिजी ‘सार्द्धशतक' के मूल में ही उसका सूचन कर देते पर ऐसा कुछ नहीं किया, न प्राचीन वृत्तिकार श्रीसुमतिगणिजी ने ही 'खरतर बिरुद' की चर्चा की है, इससे निश्चित होता है कि राजा द्वारा ‘खरतर बिरुद' प्राप्त होने की बात पिछले पट्टावली लेखकों की गढ़ी हुई बुनियाद है। (पट्टावली पराग - पृ. 349) 15. जिनविजयजी के दिये हुए लघुवृत्ति और बृहद्वृत्ति के पाठ इतना ही नहीं, जिनविजयजी संपादित ‘कथाकोषप्रकरण' में लघुवृत्ति के एवं इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /101