________________ श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालाच्छतेन विंशत्यधिकेन युक्ते। समासहस्रेऽतिगते विदृब्धा स्थानाङ्गटीकाऽल्पधियोऽपि गम्या।।8।। 8. प्रथम उपाङ्ग 'औपपातिकसूत्र' की टीका की प्रशस्ति के श्लोकः चन्द्रकुलविपुलभूतलयुगप्रवरवर्धमानकल्पतरोः। कुसुमोपमस्य सूरेः गुणसौरभभरितभवनस्य।।1।। निस्सम्बन्धविहारस्य सर्वदा श्रीजिनेश्वरावस्य। शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणेयं कृता वृत्तिः।।2।। 9. 'विपाकसूत्र' की टीका के अंत में उन्होंने इस प्रकार लिखा है: ‘कृतिरियं संविग्नमुनिजनप्रधानश्रीजिनेश्वराचार्यचरणकमल-चञ्चरीककल्पस्य श्रीमदभयदेवाचार्यस्येति।।' इन सभी उल्लेखों में अभयदेवसूरिजी ने जिनेश्वरसूरिजी को 'सुविहित', 'संविग्न', उद्यत विहारी' आदि अर्थपरक विशेषणों से स्तवना की है। परंतु कहीं पर 'खरतर' विशेषण नहीं लिखा है। इतना ही नहीं जिनेश्वरसूरिजी की शिष्य परंपरा के सिवाय भी संविग्न समुदाय भी मौजुद था, ऐसा अजितसिंहाचार्यजी के लिये प्रयुक्त विशेषण से भी पता चलता है। 10. इसी तरह उन्होंने भगवतीसूत्र आदि की टीका की प्रशस्तिओं में भी चान्द्रकुल एवं उद्यत विहार का ही उल्लेख किया है। देखिये पञ्चमाङ्ग श्री भगवतीसूत्र की प्रशस्तियदुक्तमादाविह साधुयोधैः, श्रीपञ्चमाङ्गोन्नतकुञ्जरोऽयम्। सुखाधिगम्योऽस्त्विति पूर्वगुर्वी, प्रारभ्यते वृत्तिवरत्रिकेयम्।।1।। समर्थितं तत्पबुद्धिसाधुसाहायकात्केवलमत्र सन्तः। सद्बुद्धिदात्र्याऽपगुणांल्लुनन्तु, सुखग्रहा येन भवत्यथैषा।।2।। चान्द्रे कुले सदनकक्षकल्पे, महाद्रुमो धर्मफलप्रदानात्। छायान्वितः शस्तविशालशाखः, श्रीवर्द्धमानो मुनिनायकोऽभूत्।।3।। तत्पुष्पकल्पौ विलसद्विहारसद्गन्धसम्पूर्णदिशौ समन्तात्। बभूवतुः शिष्यवरावनीचवृत्ती श्रुतज्ञानपरागवन्तौ।।4।। एकस्तयोः सूरिवरो जिनेश्वरः, ख्यातस्तथाऽन्यो भुवि बुद्धिसागरः। तयोर्विनेयेन विबुद्धिनाऽप्यलं, वृत्तिः कृतैषाऽभयदेवसूरिणा।।5।। इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /096