________________ श्रीबुद्धिसागरममुं त्ववगाह्य कोद्यो(?)व्याप्नोति तेन जगतोऽपि पदद्वेयन।।10।। श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालात् साशीतिके याति समासहस्र। सश्रीकजावालिपुरे तदाद्यं दृब्धं मया सप्तसहस्रकल्पम्।।11।। धनेश्वरसूरिजी का उल्लेख 5. जिनेश्वरसूरिजी के प्रधान शिष्य धनेश्वरसूरिजी अपरनाम जिनभद्राचार्यजी ने सं. 1095 में 'सुरसुंदरी चरित्र' की रचना की। उसमें खरतर बिरुद की बात नहीं है। देखियेःसीसो य तस्स सूरो व्व सयावि जणिय-दोसंतो। आसि सिरि-वद्धमाणो पवड्डमाणो गुण-सिरीए।।240।। रागो य जस्स धम्मे आसि पओसो य जस्स पावम्मि। तुल्लो य मित्त-सत्तुसु तस्स य जाया दुवे सीसा।।241।। दुव्वार-वाइ-वारण-मरट्ट-निट्ठवण-निठुर-मइंदो। जिण-भणिय-सुद्ध-सिद्धंत-देसणा-करण--तल्लिच्छो।।242।। जस्स य अईव-सुललिय-पय-संचारा पसन्न-वाणीया। अइकोमला सिलेसे विविहालंकार-सोहिल्ला / / 243 / / लीलावइ त्ति नामा सुवन्न-रयणोह-हारि-सयलंगा। वेस व्व कहा वियरइ जयम्मि कय-जण-मणाणंदा।।244।। एगो ताण जिणेसर-सूरि सूरो व्व उक्कड-पयावो। तस्स सिरि-बुद्धिसागर सूरी य सहोयरो बीओ।।245।। पुन्न-सरदिंद-सुंदर-निय-जस-पब्भार-भरिय-भुवण-यलो। जिण-भणिय-सत्थ-परमत्थ-वित्थरासत्त-सुह-चित्तो।।246।। जस्स य मुह-कुहराओ विणिग्गया अत्थ-वारि-सोहिल्ला। बुह-चक्कवाय-कलिया रंगत-सुफक्किय-तरंगा।।247।। तडरुह-अवसइ-महीरूहोह-उम्मूलणम्मि सुसमत्था। अज्झायपवर-तित्था पंचगंथी नई पवरा।।248।। जिनचंद्रसूरिजी का उल्लेख 6. आ. जिनचंद्रसूरिजी कृत संवेगरंगशाला की प्रशस्ति में भी ‘खरतर' बिरुद इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /094