________________ परिशिष्ट-3 जिनेश्वरसूरिजी एवं उनके शिष्य आदि के उल्लेख जिनेश्वरसूरिजी के उल्लेख 1. सूरिपुरंदर श्रीहरिभद्रसूरिजी विनिर्मित श्री अष्टप्रकरण पर जिनेश्वरसूरिजी विरचित वृत्ति की प्रशस्तिसूरेः श्रीवर्धमानस्य निःसम्बन्धविहारिणः। हारिचारित्रपात्रस्य श्रीचन्द्रकुलभूषिणः / / 2 / / पादाम्भोजद्विरेफेण श्रीजिनेश्वरसूरिणा। अष्टकानां कृता वृत्तिः सत्त्वानुग्रहहेतवे।।3।। समानामधिकेऽशीत्या सहस्त्रे विक्रमाद्ते। श्रीजावालिपुरे रम्ये वृत्तिरेषा समापिता।।4।। वि. सं. 1080 में ही रचित इस टीका की प्रशस्ति में भी खरतर बिरुद प्राप्ति का उल्लेख नहीं किया है। परंतु चन्द्रकुल का ही उल्लेख किया है। इसी तरह अन्य ग्रंथों में भी जिनेश्वरसूरिजी ने चान्द्रकूल का ही उल्लेख किया है। देखियेः2. कथाकोषप्रकरण की प्रशस्ति (वि. सं. 1108) “विक्कमनिवकालाओ वसु-नह-रुद्द (1108) प्पमाणवरिसंमि। मग्गसिरकसिणपंचमिरविणो दिवसे परिसमत्तं।। उज्जोइयभुवणयले चंदकुले तह य कोडियगणम्मि। वइरमहामुणिणिग्गयसाहाए जणियजयसोहो।। सिरिउज्जोयणसूरी तस्स महापुण्णभायणं सीसो। सिरिवद्धमाणसूरी तस्सीसजिणेसरायरिओ।।" 3. चैत्यवंदन विवरण की प्रशस्ति (सं. 1096) में भी खरतर बिरुद प्राप्ति का उल्लेख नहीं किया है। नो विद्यामदविह्वलेन मनसा नान्येषु चेावशात्। टीकेयं रचिता न जातु विपुलां पूजा जनाद् वाञ्छता। नो मौढ्यान्न च चापलाद् यदि परं प्राप्तं प्रसादाद् गुरोः। इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /092