________________ बितीकार चैत्यवासियों को मालूम हुआ तो वे (प्र. च. उनके आदमी) वहाँ जा कर कहा कि तुम नगर से चले जाओ कारण यहाँ चैत्यवासियों की सम्मति बिना कोई श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सकते हैं। इस पर पुरोहित ने कहा कि मैं राजा के पास जाकर इस बात का निर्णयकर लूँगा। बाद पुरोहित ने राजा के पास जाकर सब हाल कह दिया। उधर से सब चैत्यवासी राजा के पास गये और अपनी सत्ता का इतिहास सुनाया। आखिर राजा के आदेश से वसति प्राप्त कर जिनेश्वरसूरि पाटण में चतुर्मास किया उस समय से सुविहित मुनि पाटण में यथा इच्छा विहार करने लगे। __यह उल्लेख जिनेश्वरसूरिजी के अनुयायी ऐसे रुद्पल्लीय गच्छ के आचार्य सङ्घतिलकसूरिजी का ही है। इसके अवलोकन से पाठक वर्ग स्वयं निर्णय कर सकता है कि रुद्रपल्लीय गच्छ में भी जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद मिला, ऐसी मान्यता नहीं थी। जिनविजयजी के अभिप्राय की समीक्षा इस विषय में ‘ओसवाल वंश' पृ. 33-34 पर जिनविजयजी ने बृहद्वृत्ति, गुर्वावली आदि के आधार से जिनेश्वरसूरिजी के सूराचार्यजी से वाद होने एवं प्रभावक चरित्र में सूराचार्यजी के चारित्र वर्णन में उनके मानभंग के भय से वाद का वर्णन नहीं किये जाने की जो बात लिखी है और जिसका उद्धरण 'खरतरगच्छ का उद्भव' पृ. 33-34 पर दिया है, वह उचित प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि उपर बताये अनुसार 'प्रभावक चरित्र' के अभयदेवसूरि प्रबंध एवं 'सम्यक्त्व सप्ततिका' की टीका में न तो वाद का निर्देश है और न ही खरतर विरुद की बात है एवं पृ. 37 पर बताये अनुसार ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सूराचार्यजी और जिनेश्वरसरिजी के वाद की संभावना भी नहीं की जा सकती है। ( इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /091 )