________________ इय आसीसा दिन्ना, सूरीहिं सकज्जसिद्धिकए।।52।। अपाणिपादो ह्यमनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। स वेत्ति विश्वं न हि तस्य वेत्ता, शिवो ह्यरूपी स जिनोऽवताद्वः।।53।। तो विप्पो ते जंपइ, चिट्ठह गुट्ठी तुमेहि सह होइ। तुम्ह पसाया वेयत्थपारगा हुति दुसुया मे / / 54 / / ठाणाभावा अम्हे चिट्ठामो कत्थ इत्थ तुह नयरे ? चेइयवासियमुणिणो, न दिति सुविहियजणे वसिउं।।55।। तेणवि सचंदसालाउवरि ठावित्तु सुद्धअसणेणं। पडिलाहिय मज्झण्हे, परिक्खिया सव्वसत्थेसु।।56।। तत्तो चेइयवासिसुहडा तत्थागया भणन्ति इमं। नीसरह नयरमज्झा, चेइयबज्झो न इह ठाइ।।57।। इय वुत्तंतं सोडे, रण्णो पुरओ पुरोहिओ भणइ। रायावि सयलचेइयवासीणं साहए पुरओ।।58॥ जइ कोऽवि गुणट्ठाणं, इमाण पुरओ विरूवयं भणिही। तं नियरज्जाओ फुडं, नासेमी सकिमिभसणुव्व।।59॥ रण्णो आएसेणं, वसहिं लहिउं ठिया चउम्मासिं। तत्तो सुविहियमुणिणो, विहरंति जहिच्छियं तत्थ।।60॥" भावार्थ - वर्द्धमानसूरि ने जिनेश्वरसूरि को हुक्म दिया कि तुम पाटण जाओ कारण पाटण में चैत्यवासियों का जोर है कि वे सुविहितों को पाटण में आने नहीं देते हैं, अतः तुम जा कर सुविहितों के लिए पाटण का द्वार खोल दो। बस गुरुआज्ञा स्वीकार कर जिनेश्वरसूरि बुद्धिसागरसूरि क्रमशः विहार कर पाटण पधारे। वहाँ प्रत्येक घर में याचना करने पर भी उनको ठहरने के लिए स्थान नहीं मिला उस समय उन्होने गुरु के वचन को याद किया कि वे ठीक ही कहते थे कि पाटण में चैत्वासियों का जोर है / खैर उस समय पाटण में राजा दुर्लभ का राज था और उनका राजपुरोहित सोमेश्वर ब्राह्मण था। दोनों सूरि पुरोहित के वहाँ गये। परिचय होने पर पुरोहित ने कहा कि आप इस नगर में विराजें। इस पर सूरिजी ने कहा कि तुम्हारे नगर में ठहरने को स्थान ही नहीं मिलता फिर हम कहाँ ठहरें? इस हालत में पुरोहित ने अपनी चन्द्रशाला खोल दी कि वहाँ जिनेश्वरसूरि ठहर गये। यह / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /090