________________ का प्रचलन हो चुका था। अगर छत्रापल्लीय खरतरगच्छ की शाखा होती तो उसका उल्लेख करते तथा अगर अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छ के होते तो वे अवश्य 'खरतरगच्छ नभोमणिनवाङ्गी-वृत्तिकार अभयदेवसूरि' इस प्रकार का उल्लेख करते'। जबकि ऐसा नहीं है, देखिये :___1) उन्होंने 'श्री पार्श्वनाथकल्प' और 'श्रीस्तम्भनककल्प' में केवल “सिरिअभयदेवसूरी दरीकयदहिअरोगसंघाओ।” तथा “सिरिअभयदेवसूरी विजयंतु नवंगवित्तिकारा” इस प्रकार का ही उल्लेख किया है। (देखें पृ.76) 2) दुसरी बात ‘कन्यानयनीयमहावीरप्रतिमाकल्प' में 'ढिल्लीसाहापुरे खरयर-गच्छालंकारसिरिजिणसिंहसूरिपट्टपइट्ठिया सिरिजिणप्पहसूरिणो।' इस उल्लेख से खुद को खरतरगच्छीय बताया है एवं अपने गुरु को 'खरतरगच्छालंकार' ऐसे विशेषण से विशेषित किया है। (देखें पृ. 77) 3) अगर नवाङ्गीटीकाकार जैसे महापुरुष अपने गच्छ में हुए होते अथवा अपने पूर्वज होते तो उसका वे अवश्य उल्लेख करते। जैसे कि, जिनपतिसूरिजी को इसी कल्प में 'सिरिजिणवइसूरीहिं अम्हेच्चय पुव्वायरिएहिं' इस प्रकार अपने पूर्वाचार्य के रूप में बताया है। (देखें पृ. 77) ____4) इतना ही नहीं, स्तम्भनककल्पशिलोञ्छ: में 'इओ अ चंदकुले सिरिवद्धमाणसूरिसीसजिणेसरसूरीणं सीसो सिरिअभयदेवसूरी' गुज्जरत्ताए संभायणठाणे विहरिओ।' इस प्रकार अभयदेवसूरिजी को स्पष्ट रूप से चांद्रकुल का बताया है। (देखें पृ. 78 ) जबकि जिनप्रभसूरिजी ने उपर बताये अनुसार खुद को तो खरतरगच्छीय ही बताया है एवं जिनपति सुरिजी को अपने पूर्वाचार्य के रूप में बताये हैं। सार इतना है कि विविधतीर्थकल्प में प्राप्त होते जिनप्रभसूरिजी के उल्लेखों एवं मुनिसुव्रत चरित्र की प्रशस्ति से यह पता चलता है कि 1. अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे परंतु चांद्रकुल के थे। 2. वे खरतरगच्छ के पूर्वाचार्य नहीं थे। 3. अभयदेवसूरिजी की शिष्य परंपरा ‘अभयदेवसूरि संतानीय' अथवा 'छत्रापल्लीगच्छ' के नाम से जानी जाती थी। वह खरतरगच्छ की शाखा नहीं है। इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /070