________________ उसमें ‘जओ अ सेरीसयपुरे नवंगवित्तिकार-साहासमुब्भवेहि सिरिदेविंदसूरीहिं चत्तारि महाबिंबाइं दिव्वसत्तीए गयणमग्गेण आणीआई।' इस उल्लेख से देवेन्द्रसूरिजी को नवाङ्गीवृत्तिकार-संतानीय बताया है। फिर आगे 'छत्तावल्लीयसिरिदेविंदसूरिणो' इस प्रकार का उल्लेख किया है। (देखें पृ.74) इससे भी स्पष्ट होता है कि अभयदेवसूरि-संतानीय, छत्रापल्लीय के नाम से भी जाने जाते थे। ___3) यहाँ पर एक विशेष बात ध्यान में लेने जैसी है कि सं. 1125 में छत्रापल्ली पुरी में रहकर आ. जिनचंद्रसूरिजी ने 'संवेगरंगशाला' की निष्पत्ति की थी। ऐसा उसकी प्रशस्ति से पता चलता है। इससे यह अनुमान होता है कि आ. जिनचंद्रसूरिजी का छत्रापल्ली में विशेष विचरण रहा होगा और इसी कारण प्रायः उनका शिष्य परिवार छत्रापल्लीय के नाम से जाना जाने लगा होगा। (देखें पृ. 75) ___ अभयदेवसूरिजी की शिष्य परंपरा में हुए मुनिजन 'अभयदेवसूरिसंतानीय' कहे जाते थे। आ. अभयदेवसूरिजी और आ. जिनचंद्रसूरिजी अत्यंत निकट थे। अतः उनके शिष्यों में भी परस्पर भेद नहीं था और अभयदेवसूरिजी विशेष रूप से प्रभावक आचार्य रहे थे। अतः दोनों की परंपरा अभयदेवसूरिसंतानीय के रूप में विशेष रूप से प्रसिद्ध रही होगी और इसीलिए 'मुनिसुव्रत चारित्र' के पुस्तक की प्रशस्ति में आ. जिनचंद्रसूरिजी के शिष्य प्रसन्नचंद्रसूरिजी की परम्परा में हुए पद्मप्रभसूरिजी 'छत्रापल्लीय और अन्यत्र नवाङ्गीटीकाकार अभयदेवसूरि- संतानीय' के रूप में भी बताये गये हैं। विविधतीर्थकल्प में भी देवेन्द्रसूरिजी 'छत्रापल्लीय' और 'अभयदेवसूरिसंतानीय' विशेषणों से बताये गये हैं। विविध तीर्थकल्प की कुछ विशेष बातें जिनप्रभसूरिजी खरतरगच्छ के थे और उनके समय तक खरतरगच्छ शब्द *1. देखें पृ. 71-72 *2 ‘सं. 1298 वर्षे पत्तननगरे सर्वैराचार्यैः सम्भूय शासनमर्यादाकृते मतकं कृतं। तत्र नवाङ्गी वृत्तिकार-श्रीअभयदेवसूरिसन्ताने छत्राउलाश्रीदेवप्रभसूरिशिष्यश्रीपद्मसूरिरिति लिखितमस्ति।' ऐसा उल्लेख 'औष्ट्रिकमतोत्सूत्रप्रदीपिका' ग्रंथ में मिलता है। इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /069