________________ मिली इतिहास की नयी कड़ी!!! इस प्रकार हमने देखा कि अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छ के नहीं थे और न ही खरतरगच्छ अभयदेवसूरिजी की परम्परा में हुआ था। परंतु भक्ति आदि के कारण से खरतरगच्छ की पट्टावलियों में अभयदेवसूरिजी को अपने पूर्वाचार्य के रूप में बताया है और इसी प्रवाद से प्रभावित होकर अन्य गच्छों के परवर्ती ग्रंथों में अभयदेवसूरिजी के खरतरगच्छीय होने के उल्लेख किये गये हैं। ऐसा उन्हीं गच्छों के प्राचीन ग्रंथों के साथ पूर्वापर अनुसंधान करने से प्रतीत होता है। (देखें पृ. 19-20) नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी अपने काल के प्रभावक आचार्य थे उनसे चली परम्परा ‘अभयदेवसूरि-संतानीय' के नाम से जानी जाती थी। उस परम्परा के विषय में इतिहास की एक नयी कड़ी प्राप्त हुई है। ___ 1) सं. 1294 में पद्मप्रभसूरिजी ने 'मुनिसुव्रत चरित्र' की रचना की थी। इस ग्रंथ की प्रशस्ति में उन्होंने जिनचंद्रसूरिजी और अभयदेवसूरिजी को अपने पूर्वाचार्य के रूप में बताया है। (देखें पृ. 108) उन्हीं के भक्त श्रावक ने सं .1304 में मुनिसुव्रत चरित्र की प्रतिलिपि करायी थी, जो जेलसमेर ताड़पत्रीय ग्रंथ भण्डार में क्रमांक 256 में है। उसकी प्रशस्ति में "छत्रापल्लीय श्री पद्मप्रभसूरितः'' इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। (देखें पृ.72) / इसी ताड़पत्रीय के साथ कुछ छुट्टे पन्ने भी हैं, जिसकी प्रशस्ति में भी “श्री दण्डछत्रापल्लीयता.... देवभद्रसूरिणा....” इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। (देखें पृ. 73) इससे स्पष्ट होता है कि अभयदेवसूरि - संतानीय परम्परा छत्रापल्लीय नाम से भी जानी जाती थी। खरतरगच्छ की किसी भी पट्टावली में छत्रापल्लीय गच्छ को अपनी शाखा के रूप में नहीं बताया है। अतः स्पष्ट होता है कि छत्रापल्लीय गच्छ खरतरगच्छ की शाखा नहीं है। 2) इस बात की पुष्टि खरतरगच्छ के प्रभावक आचार्य जिनप्रभसूरिजी कृत विविध तीर्थकल्प' ग्रंथ में दिये गये अयोध्यानगरी कल्प से होती है। / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /068 )