________________ आ. जिनचंद्रसूरिजी एवं अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे!! 1. जैसे आ. जगच्चंद्रसूरिजी को 'तपा' बिरुद मिलने का उल्लेख उनके शिष्य आ. देवेन्द्रसूरिजी ने स्वोपज्ञ कर्मग्रंथ टीका-प्रशस्ति में किया है तथा इस घटना के लिए सभी एक मत हैं। वैसे जिनेश्वरसूरिजी को बिरुद मिलने की बात का उल्लेख उनके बाद लगभग 200 साल तक (सं. 1305 तक) आ. जिनचंद्रसूरिजी, आ. अभयदेवसूरिजी तथा जिनवल्लभगणिजी, आ. जिनदत्तसूरिजी आदि ने कहीं पर नहीं किया है तथा खरतरगच्छ की उत्पत्ति 1204 में हुई ऐसा अंचलगच्छ के सं. 1294 में बने शतपदी ग्रंथ में उल्लेख मिलता है। अतः जिनेश्वरसूरिजी को ‘खरतर' बिरुद नहीं मिला, ऐसा सिद्ध होने से उनकी परंपरा में हुए “अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे' ऐसा प्राचीन प्रमाणों से सिद्ध होता है। ____ 2. 'खरतर बिरुद प्राप्ति' की सिद्धि के लिए दिये जाने वो ‘वृद्धाचार्य प्रबन्धावली' आदि अर्वाचीन प्रमाणों की बात का निराकरण पृ. 31 से 35 में किया जा चुका है। ___ 3. इतना ही नहीं, ‘अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय थे' इसकी सिद्धि हेतु "जैनम टडे' में दिये गये तर्क एवं मत-पत्र आदि का निराकरण भी पृ. 45 से 51 में किया जा चुका है। __ अतः “अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे” यह बात तर्क एवं प्रमाण से अटल सत्य के रूप में सिद्ध हो जाती है। यहाँ पर ऐसी जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है कि 'अगर अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे, तो किस गच्छ के थे?' उसका जवाब उनके ग्रंथों की प्रशस्ति से मिल जाता है, उन्होंने स्पष्ट रूप से खुद को 'चान्द्रकुल' का बताया है। इस प्रकार ‘इतिहास के आइने' में यह अटल सत्य स्पष्ट रूप से दिखायी देता है कि नवाङ्गी टीकाकार आ. अभयदेवसूरिजी म.सा. एवं उनके वडील गुरुभ्राता संवेगरंगशाला के कर्ता आ. जिनचंद्रसूरिजी म.सा. खरतरगच्छ के नहीं परंतु चान्द्रकुल केहीथे। *1. देखें पृ. 14 एवं 46 की टिप्पणी *2. देखें पृ. 14 एवं विशेष के लिए परिशिष्ट - 3, पृ-92 *3 देखें परिशिष्ट -3, पृ. 95 से 97 इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /052