________________ भी विद्या-शिष्यत्व की अपेक्षा से स्वीकारना चाहिए (विशेष के लिये देखें - पृ. 53) उसमें अभयेदवसूरिजी के खरतरगच्छीय होने की बात कहाँ है? स) तथा 'उपदेशसप्ततिका' आदि के उल्लेख तो पृ. 20 पर बताये अनुसार अर्वाचीन हैं। तत्कालीन प्रघोष के प्रभाव के वश होकर अनाभोग से लिखे हुए होने से वे महत्त्व के नहीं है, क्योंकि उपदेश सप्ततिका के कर्ता के पूर्वाचार्यों ने सं. 1204 में खरतरगच्छ से उत्पत्ति बतायी है। इतना ही नहीं दिये गये प्रमाणों से भी प्राचीन प्रमाणों से अभयदेवसूरिजी के खरतरगच्छीय नहीं होने की सिद्धि हम पृ. 14 से 30 पर कर चुके हैं। IV 'जैनम् टुडे' के इस लेख के अंत में ऐसा तर्क दिया है कि अन्य गच्छों की पट्टावलियों में नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का नाम नहीं लिखा है, केवल खरतरगच्छ की पट्टावलियों में ही लिखा है, अतः वे खरतरगच्छीय थे। __ उनकी यह बात भी उचित नहीं है। क्योंकि रूद्रपल्लीय गच्छ एवं अभयदेवसूरि-संतानीय की पट्टावलियों में भी अभयदेवसूरिजी का नाम मिलता है और ये दोनों गच्छ खरतरगच्छ से भिन्न थे अर्थात् उसकी शाखा रूप भी नहीं थे, क्योंकि उनके साहित्य एवं लेखों में कहीं पर भी ‘खरतर' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। (विशेष के लिए देखें - पृ. 19, 119 और 140) खरतरगच्छीय पट्टवालियों में अभयदेवसूरिजी का नाम किस तरह जुड़ा, उसकी विस्तृत जानकारी के लिये देखिये -पृ. 53 से 55 इस प्रकार जैनम् टुडे में दिये गये जिनपीयूषसागरसूरिजी के लेख एवं मत-पत्र के बारे में प्रासंगिक स्पष्टीकरण करने के बाद हम मूल विषय पर आते हैं। 1617 का मत-पत्र अप्रमाण !!! क्योंकि 1. जैन संघ का सबसे बड़ा वर्ग-तपागच्छ उसमें सहमत नहीं था। (देखें पृ. 49) 2. उसमें दिये गये ‘प्रभावक चरित्र' आदि प्रमाणों से ‘अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे' ऐसा ही सिद्ध होता है। (देखें पृ. 83) *1. देखें पृ. 19 ( इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /051 )