________________ थी, वह विलुप्त हो चुकी थी। रुद्रपल्लीय गच्छ भी नाम शेष हो चुका था। क्योंकि सं. 1605 के बाद का कोई भी उल्लेख उस गच्छ संबंधी नहीं मिलता है। (खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह-लेख नं. 1148) अतः ‘अभयदेवसूरि खरतर गच्छ के थे', इस बात का स्पष्ट रूप से विरोध कर सके ऐसा कोई मौजुद नहीं था। एसी परिस्थितिओं में जब धर्मसागरजी के विरुद्ध सम्मेलन किया गया, तब सभी ने एकमत होकर खरतरगच्छ के पक्ष का समर्थन किया होगा, तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मत-पत्र की कसौटी मान लिया कि कई गच्छ वालों ने मिलकर इसमतपत्र को प्रमाणित किया था परंतु ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से मतपत्र की यह बात प्रामाणिक नहीं बनती है, क्योंकि जिन प्रमाणों को आगे करके अभयदेवसूरिजी के खरतरगच्छीय होने की बात लिखी है, वे प्रमाण या तो गलत ढंग से पेश किये गये हैं अथवा अर्वाचीन है, अर्थात् मौलिक नहीं है। जैसे कि - अ) प्रभावक चरित्र के अभयदेवसूरि-चरित्र को प्रमाण के रूप में बताया है, उससे तो प्रत्युत यह सिद्ध होता है कि जिनेश्वरसूरिजी का न तो राजसभा में किसी से वाद हुआ था और न ही उन्हें खरतर बिरुद की प्राप्ति हुई थी। अर्थात् जिनेश्वरसूरिजी को 'खरतर' बिरुद ही नहीं मिला होने से “अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे" ऐसा मत-पत्र में दिये गये प्रभावक चरित के प्रमाण से ही सिद्ध होता है। तथा अपने से विरुद बात की सिद्धि हो ऐसे प्रमाणों को आगे करके लिखा गया मत-पत्र भी कितना प्रामाणिक है एवं कितना महत्त्व रखता है, यह समझ सकते हैं। ब) जिनवल्लभगणिकृत सार्द्धशतक -कर्मग्रन्थ की धनेश्वरसूरिजी की टीका में तो, जिनवल्लभगणिजी अभयदेवसूरिजी के शिष्य थे, इतना ही लिखा है, और उसे *1 देखें परिशिष्ट-2, पृ. 83 / *2 जिणवल्लहगणि “त्ति जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसङ्ग्राहिस्थानाङ्गाद्य ङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीर्तिसुधाधवलितधरामण्डलानां श्रीमद भयदेवसूरीणां शिष्येण ‘लिखितं' कर्मप्रकृत्यादिगम्भीरशास्त्रेभ्यः समुद्धृत्य दृब्धं जिनवल्लभ-गणिलिखितम्।” - सार्द्धशतक कर्मग्रंथ-टीका इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /050