________________ उल्लेखों पोताना गच्छना ममत्वथी खरतरोए करेला छे, माटे ते मानवा लायक नथी.' जंबूसूरिजी का यह अनुमान अगर सही है, तो फिर कोई समाधान देने की जरुरत नहीं होती है। कुछ अंश तक उनका कथन सही भी लगता है क्योकि धर्मसागरजी अत्यंत निडर वक्ता थे। वे वाद-विवाद के लिए हमेशा तत्पर रहते थे इतना ही नहीं, वे तो सामने से ही वाद के लिए पहुंच जाते थे। अतः तीन बार बुलाने पर भी वे नहीं आए, यह बात स्वीकार नहीं सकते हैं। 2. अगर ऐसा मतपत्र हो तो भी इतना तो निश्चित है कि 'अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय थे' इस बात का दानसूरिजी, हीरविजयसूरिजी एवं विजयसेनसूरिजी ने समर्थन नहीं किया था। उन्होंने तो महो. धर्मसागरजी का “अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे," इसकी सिद्धि करनेवाले पत्र को पढने के बाद यहाँ तक कह दिया था कि "अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय थे ऐसे स्पष्ट अक्षर बताओ, तो हम लिखकर देने को तैयार हैं।" उनकी यह बात सुनकर खरतरगच्छ के प्रमुख श्रावक पुनः लौट गये थे। इस बात से यह सिद्ध होता है कि इस मतपत्र में सभी गच्छों की सम्मति नहीं थी। क्योंकि सबसे बड़ा तपागच्छ का वर्ग उसमें सहमत नहीं था। अन्य मतवालों के धर्मसागरजी के विरुद्ध, अभयदेवसूरिजी के खरतरगच्छीय होने के समर्थन में हस्ताक्षर करने के पीछे ये कारण प्रतीत होते हैं.... 1. महो. धर्मसागरजी म.सा. निडर एवं स्पष्ट वक्ता थे। उन्हें जिस गच्छ में जो-जो दोष दिखता था, उसकी वे कड़क समालोचना करते थे। इसलिए सभी गच्छवाले उनके प्रति विरोध की भावना रखते थे। अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय थे ऐसा प्रचार 15-16वीं शताब्दी से विशेष रूप से शुरु हो गया था। तथा 17वीं शताब्दी तक तो यह प्रघोष सर्वत्र प्रचलित हो चुका था कि अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय थे। अतः सभी गच्छवाले आमतौर से इसी के साथ मानते थे। इतना ही नहीं देखा-देखी में अनाभोग से तपागच्छ के साधुओं ने भी लिख दिया था कि अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय है। 3. 14-15वीं शताब्दी के अंत तक तो अभयदेवसूरिजी की मूल शिष्य परंपरा जो अभयदेवसूरि संतानीय के नाम से खुद को संबोधित करती / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /049