________________ दूसरी बात ‘अभयदेवसूरिजी ने अपने ग्रंथों में ‘खरतर' नाम नहीं लिखा है, परंतु उन्हें अन्य ग्रंथों के आधार से खरतरगच्छीय मान लेना चाहिये। यह बात तब स्वीकार्य होती, जब उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने कुल का बिलकुल निर्देश नहीं किया होता। परंतु उन्होंने स्पष्ट रूप से खुद को अनेक ग्रंथों में चान्द्रकुल का बताया है। उनके चान्द्रकुलीन होने के निर्देश से ही उनके खरतरगच्छीय नहीं होने की सिद्धि होती है। सं. 1617 के मतपत्र का निराकरण III. 'जैनम् टुडे' के अगस्त 2016 के अंक में 'सत्य नहीं अटल सत्य! नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि खरतरगच्छ के।' इस लेख में जो-जो तर्क दिये हैं, उन सबका जवाब इस पुस्तक में आ गया है। इस लेख में 'विक्रम सं. 1617 में अकबर प्रतिबोधक युगप्रधानाचार्य चतुर्थ दादागुरुदेव श्री जिनचंद्रसूरिजी ने जब पाटण में चातुर्मास किया तब उपाध्याय धर्मसागरजी म. के उक्त आक्षेपों का निराकरण करने के लिए एक विशाल संगीति का आयोजन किया। उसमें तत्कालीन मूर्धन्य आचार्यों, मुनियों और विद्वानों को बुलाया। उनके समक्ष खरतरगच्छ की उत्पत्ति एवं आचार्य नवांगी टीकाकार श्री स्थंभण पार्श्वनाथप्रगटकर्ता श्री अभयदेवसूरि खरतरगच्छ में हुए हैं, उनके संदर्भ में अनेकों ग्रंथों के प्रमाण प्रस्तुत कर सभी गच्छ के उपस्थित आचार्य, उपा. मुनि ने निष्पक्षता से मान्य किया कि आचार्य अभयदेवसूरि खरतरगच्छ की परम्परा में हुए ऐसा उल्लेख दिया है तथा उसकी पुष्टि हेतु निर्णयकारों के हस्ताक्षर वाले मतपत्र की प्रतिलिपी भी दी है, उसका समाधान इस प्रकार है कि 1. आ. जंबूसूरिजी 'तपा-खरतर भेद' पुस्तक के पृ. 118 पर बोल 139 की टिप्पणी 17 में बताते हैं कि यह मतपत्र नकली है। ___ 'श्री जिनचंद्रसूरिजीना जीवनचरित्रनी चोपडीमां सं. 1617मां पाटण मुकामे सर्वगच्छीओनी सभामां अभयदेवसूरि खरतरगच्छना होवानो निर्णय थयानं तथा ते पट्टक उपर बधानी सहीओ थयानुं तेओ जणावे छे, परंतु विचारपूर्वक तपासी जोता ए आलु य खतपत्र बनावटी होवानुं मालूम पड्यु छे, अने एवा कोई बनावटी * अकबर प्रतिबोधक कौन ? इसके विषय में स्पष्टीकरण के लिए देखें हमारी पुस्तिका "अकबर प्रतिबोधक कौन ?" -संपादक / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /048 )