________________ जिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोः अल्पमतेः आचार्यहरिभद्रस्य।' ___ इसमें हरिभद्रसूरिजी म. ने स्वयं को विद्याधर कुल का बताया है एवं अपने गुरु का नाम भी बताया है। 3. वाणिजकुल संभूओ कोडियगणिओ उ वयरसाहीतो। गोवालियमहत्तरओ, विक्खाओ आसि लोगंमि॥1॥ ससमयपरसमयविऊ, ओयस्सी दित्तिमं सुगंभीरो। सीसगणसंपरिवुडो, वक्खाणरतिप्पिओ आसी।।2।। तेसिं सीसेण इमं, उत्तरज्झयणाण चुण्णिखंडं तु। रइयं अणुग्गहत्थं, सीसाणं मंदबुद्धीणं।।3।। जं एत्थं उस्सुत्तं, अयाणमाणेण विरतितं होज्जा। तं अणुओगधरा मे, अणुचिंतेउं समानतु।।4।। - पृ. 283 उत्तराध्ययन चूर्णि, जिणदासगणि महत्तर इसमें भी जिनदासगणि महत्तर ने अपने कुल का नाम वाणिज्य कुल बताया ही है। 4. अस्ति विस्तारवानुर्व्या, गुरुशाखासमन्वितः। आसेव्यो भव्यसार्थानां, श्रीकोटिकगणद्रुमः॥1॥ तदुत्थवैरशाखायामभूदायतिशालिनी। विशाला प्रतिशाखेव, श्रीचंद्रकुलसन्ततिः॥2॥ तस्याश्चोत्पद्यमानच्छदनिचयसदृक्काचकर्णान्वयोत्थः, श्रीथारापद्रगच्छप्रसवभरलसद्धर्मकिञ्जल्कपानात। श्रीशान्त्याचार्यभृङ्गो यदिदमुदगिरद्वाङ्मधु श्रोत्रपेयं, तद् भो भव्याः! त्रिदोषप्रशमकरमतो गृह्यतां लिह्यतां च॥3॥ - उत्तराध्ययन टीका, शांतिसूरिजी इसमें वादिवेताल शान्त्याचार्यजी ने भी अपने के थारापद्रगच्छ का बताया है। इस प्रकार पूर्वाचार्यों द्वारा अपने ग्रंथों में अपने कुल एवं गच्छ का निर्देश किया गया होने पर भी उसका निषेध करके भोली प्रजा के आगे अपनी बात की गलत रीति से सिद्धि करना उचित नहीं है। इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /047