________________ समीक्षा I. इस प्रकार जिनपीयूषसागरसूरिजी ने अपनी बात की सिद्धि के लिए तपागच्छ के आचार्य के विषय में प्रश्न उठाया है।अतः सर्वप्रथम इस विषय में ही स्पष्टीकरण जरूरी लगता है कि - ' देवेन्द्रसरिजी ने तो कर्मग्रंथ की प्रशस्ति में *1 अपने गुरु को चान्द्रकुल का बताया है एवं 'तपा' बिरुद मिलने की ऐतिहासिक बात लिखी है। इसलिए आ. श्री जगच्चंद्रसूरिजी को 'तपा' बिरुद मिला, यह सत्य हकीकत है। गुणरत्नसूरिकृत ‘क्रियारत्न समुच्चय' की प्रशस्ति आदि में * मणिरत्नसूरिजी को जगच्चंद्रसूरिजी के गुरु के रूप में स्पष्ट रूप से बताया है तथा मणिरत्नसूरिजी क्रियोद्धार के कुछ समय बाद स्वर्गस्थ हो चुके थे। दूसरी बात यह है कि, उपाध्याय देवभद्रगणिजी, जगच्चंद्रसूरिजी के तत्कालीन उपसंपदादाता थे। अतः जगच्चंद्रसूरिजी उनके ही निश्रावर्ती के रूप में पहचाने जाते थे।अतः देवेन्द्रसूरिजी आदि के तत्कालीन ग्रंथों में उपाध्याय देवभद्रगणिजी का ही गुरु के रूप में उल्लेख मिलता है। इस प्रकार जगच्चंद्रसूरिजी को ‘तपा' बिरुद मिलना एवं उनका मणिरत्नसूरिजी का शिष्य होना सिद्ध होता है। II. “शीलांकाचार्य आदि पूर्वाचार्यों ने भी अपने बनाये ग्रंथों में अपने गच्छ का नाम नहीं लिखा है, परंतु अन्य ग्रंथों के आधार से उन पुरुषों को उनके गच्छ के मानने में आते हैं।'' ऐसा जो लिखा है वह उचित प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि 1. निर्वृत्तिकुलीन श्रीशीलाचार्येण तत्त्वादित्यापरनाम्ना वाहरिसाधुसहायेन कृता टीका परिसमाप्तेति। - आचारांग - टीका, प्रथम श्रुतस्कन्ध का अन्त इसमें शीलांकाचार्यजी ने स्वयं को निर्वृत्तिकुल का बताया है। 2. आवश्यक-नियुक्ति-टीका के अन्त में देखिए:'समाप्ता चेयं शिष्यहिता नाम आवश्यक टीका। कृतिः सिताम्बराचार्च *1. क्रमात् प्राप्ततपाचार्येत्याख्या भिक्षुनायकाः। समभूवन् कुले चान्द्रे श्री जगच्चंद्रसूरयः।। -आ.देवेन्द्रसूरिकृत स्वोपज्ञ कर्मग्रंथ टीका-प्रशस्ति *2 मणिरत्नगुरोः शिष्याः श्री जगच्चंद्रसूरयः। सिद्धान्तवाचनोद्भूतवैराग्यरसवार्द्धयः।। चारित्रमुपसंपद्य यावज्जीवमभिग्रहात्। आचामाम्लतपस्तेनुस्तपागच्छस्ततोऽभवत्।। - आ. गुणरत्नसूरिजी कृत क्रियारत्न समुच्चय-प्रशस्ति इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /046