________________ क्या खरतरगच्छ अभयदेवसूरिजी संतानीय हैं? यहाँ पर ऐसी जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है, कि 'यद्यपि अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छ के नहीं थे, परंतु वर्तमान खरतरगच्छ अभयदेवसूरिजी की परंपरा में है ऐसा कहने में तो क्या कोई हर्ज है?' इस प्रश्न के उत्तर को पाने के लिए जिनवल्लभगणिजी का अभयदेवसूरिजी से क्या संबंध था? वह देखना जरुरी होता है। अभयदेवसूरिजी और जिनवल्लभगणिजी जिनवल्लभगणिजी अभयदेवसूरिजी के नहीं, परंतु कूर्चपुरीय जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य थे। उसके निम्न लिखित प्रमाण मिलते हैं:__ 1. पं. नेमिकुमार पोरवाल-'आवस्सय विसेसभास' की पुष्पिका में लिखते हैं कि लिखितं पुस्तकं चेदं नेमिकुमारसंज्ञिना। प्राग्वटकुलजातेन शुद्धाक्षरविलेखिना।। सं. 1138 पोष वदि 7 / / कोट्याचार्यकृता टीका समाप्तेति। ग्रन्थाग्रमस्यां त्रयोदशसहस्राणि सप्तशताधिकानि।।13700।। पुस्तकं चेदं विश्रुतश्रीजिनेश्वरसूरिशिष्य जिनवल्लभगणेरिति॥ पुष्पिकाविस्फूर्जितं यस्य गुणैरुपात्तैः शाखायितं शिष्यपरम्पराभिः। पुष्पायितं ययशसा स सूरिर्जिनेश्वरोऽभूद् भुवि कल्पवृक्षः।।4।। शाखाप्ररोह इव तस्य विवृद्धशुद्ध-बुद्धिच्छदप्रचयवञ्चितजात्यतापः। शिष्योऽस्ति शास्त्रकृतधीर्जिनवल्लभाख्यः सख्येन यस्य विगुणोऽपि जनो गुणी स्यात्।।5।। (जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ. 1; जैन लिटरेचर एण्ड फिलोसोफी, पृ. नं. 1106 की पुष्पिकाः भांडारकर ओरियंटल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना-प्रकाशित प्रशस्तिसंग्रह, भाग-3; जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पाराः 219) इस प्राचीन उल्लेख से स्पष्ट होता है कि अभयदेवसूरिजी के देवलोक होने के समय तक तो जिनवल्लभगणिजी जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य के रूप में ही थे। क्योंकि यह सं. 1138 का उल्लेख है और अभयदेवसूरिजी का देवलोक सं. 1135/ 1138 में माना जाता है। / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ/053 )