________________ उपाध्याय सुखसागरजी का उल्लेख उपाध्याय मुनि सुखसागरजी महाराजजी ने ता. 20 मई, 1956 को अजमेर में श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज अष्टम शताब्दी निर्वाण महोत्सव में अभिभाषण दिया था, जो पुस्तिका के रूप में छपा हुआ मिलता है। उसमें उन्होंने पृ. 18-19 पर इस प्रकार कहा है कि___ “इस तरह पीछे बहुत प्रसिद्धि प्राप्त उक्त खरतरगच्छ के अतिरिक्त, जिनेश्वरसूरि की शिष्य परंपरा में से अन्य कई एक छोटे बड़े गण-गच्छ प्रचलित हुए और उनमें भी कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध विद्वान, ग्रंथकार, व्याख्यानिक, वादी, तपस्वी, चमत्कारी साधु यति हुए जिन्होंने अपने व्यक्तित्व से जैन समाज को समुन्नत करने में उत्तम योग दिया।" ___ इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकारा है कि जिनेश्वरसूरिजी की शिष्य परंपरा में से अन्य कई एक छोटे-बड़े गण-गच्छ प्रचलित हुए। इससे भी स्पष्ट होता है कि खरतरगच्छ जिनेश्वरसूरिजी से शुरु नहीं हुआ था। इतना ही नहीं पृ. 16 पर ‘खरतरगच्छ' की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार का वक्तव्य दिया है: विधिपक्ष अथवा खरतर गच्छ का प्रादुर्भाव और गौरव इन्हीं जिनेश्वरसूरि के एक प्रशिष्य आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि और उनके पट्टधर श्री जिनदत्तसूरि (वि.सं. 1169-1211) हुए जिन्होंने अपने प्रखर पाण्डित्य, प्रकृष्ट चारित्र और प्रचण्ड व्यक्तित्व के प्रभाव से मारवाड़, मेवाड़, वागड़, सिंध, दिल्ली मण्डल और गुजरात के प्रदेश में हजारों अपने नये-नये भक्त श्रावक बनाये, हजारों ही अजैनों को उपदेश दे-दे कर नूतन जैन बनाये, स्थान-स्थान पर अपने पक्ष के अनेकों नये जिनमन्दिर और जैन उपाश्रय तैयार करवाये। अपने पक्ष का नाम इन्होंने विधिपक्ष ऐसा उद्घोषित किया और जितने भी नये जिनमंदिर इनके उपदेश से, इनके भक्त श्रावकों ने बनवाये, उनका नाम विधिचैत्य ऐसा रखा गया। परंतु पीछे से चाहे जिस कारण से हो इनके अनुगामी समुदाय को खरतर पक्ष या खरतरगच्छ ऐसा नूतन नाम प्राप्त हुआ और तदनन्तर यह समुदाय इसी नाम से अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ, जो नाम आज तक अविछिन्न रूप से विद्यमान है।" इसमें तो उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकारा है कि “जिनदत्तसूरिजी के पश्चात् ही उनके समुदाय को किसी कारण से खरतरगच्छ ऐसा नूतन नाम प्राप्त हुआ।" इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /0440