________________ निष्कर्ष इस प्रकार 1. जिनेश्वरसूरिजी एवं उनके शिष्यों के उल्लेख / 2. खरतरगच्छ के सहभावी रुद्रपल्लीय गच्छ एवं अन्य गच्छों के उल्लेख। 3. प्राचीन ऐतिहासिक प्रबंध-प्रभावक चरित्र के उल्लेख। 4. पं. कल्याणविजयजी आदि ऐतिहासिक विशेषज्ञों के अपने ठोस ऐतिहासिक अध्ययन के आधार से दिये गये मंतव्य के उल्लेख। 5. पाठ प्रक्षेप की प्रवृत्ति। 6. सं. 1080 में दुर्लभ राजा की कसौटी 7. जिनेश्वरसूरिजी और सूराचार्य के वाद की अनुपपत्ति और 8. खरतर शब्द के बिरुद के रूप में विरोधाभास आदि से जब सिद्ध होता है कि जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद नहीं मिला था, तो खरतर बिरुद की प्राप्ति को सं. 1080 में (जो इतिहास से विसंवादी है) अथवा सं. 1075 में (जिसका कहीं पर भी निर्देश नहीं है) मानना कहाँ तक उचित है? और उसके आधार पर सहस्राब्दी को मनाना भी विचारणीय बनता है। तथा जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद नहीं मिला होने से उनकी परंपरा में हुए “नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी भी खरतरगच्छीय नहीं थे।" यह सिद्ध हो जाता है। खरतरगच्छीय नहीं थे कवि धनपाल !!! ___-जिनविजयजी धनपाल ने स्वयं अपनी प्रसिद्ध कथा-कृति 'तिलकमञ्जरी' में अपने | गुरु का नाम महेन्द्रसूरि सूचित किया है और प्रभावक चरित में भी उसका यथेष्ट प्रमाणभूत वर्णन मिलता है। इसलिये धनपाल और शोभन मुनि का जिनेश्वरसूरि को मिलना और उनके पास दीक्षित होना आदि सब कल्पित है। _ - कथाकोष प्रकरण-प्रस्तावना, पृ. 37 ( इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /042 )