________________ किया है।" तथा पृ. 13 पर - “यह सत्य है कि इस समय खरतर शब्द का प्रचलन नहीं रहा किन्तु जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं खरतर शब्द से पहले इसके लिये 'सुविहितमार्ग' एवं 'विधिमार्ग' जैसे शब्द प्रचलित रहे और वर्धमान, जिनेश्वर, अभयदेव आदि को सभी विद्वान् सुविहितमार्गीय ही बतलाते हैं। स्वयं खरतरगच्छीय परम्परा भी उन्हें अपना पूर्वज मानती है। और कोई भी अन्य परम्परा स्वयं को इनसे सम्बद्ध नहीं करती' अतः यह स्पष्ट है कि वर्धमान, जिनेश्वर, अभयदेव खरतरगच्छीय नहीं अपितु खरतरगच्छीय जिनवल्लभ, जिनदत्त, मणिधारी जिनचंद्रसूरि, जिनपतिसूरि आदि के पूर्वज अवश्य थे और ऐसी स्थिति में उत्तरकालीन मुनिजनों द्वारा अपने पूर्वकालीन आचार्यों को अपने गच्छ का बतलाना स्वाभाविक ही है।''*2 इन उल्लेखों से जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद मिलने के विषय में संदेह बताया है एवं अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे, ऐसा स्वीकार किया है। खरतरगच्छ के ही इतिहासज्ञ जब इस प्रकार स्वीकार कर रहे हैं, तब खरतरगच्छ के सभी अनुयायिओं को भी इस विषय पर शान्ति से विचार करना जरुरी बन जाता है। प्रमाण क्या कहते हैं ??? 'खरतरगच्छ का उद्भव' पुस्तिका के पृ. 17 पर दिया गया ‘गणधरसार्धशतक' की बृहद्वृत्ति प्राप्त खरतर बिरुद भगवन्तः श्री जिनेश्वरसूरयः' ऐसा पाठ, पृ. 100 से 103 पर दिये गये प्रमाणों से बाधित होता है। *1. उनकी यह बात उचित नहीं है क्योंकि रूद्रपल्लीय गच्छ तथा अभयदेवसूरि संतानीय (छत्रापल्लीय) परंपरा भी स्वयं को इन्हीं पूर्वाचार्यों सेजोड़ती ही है। -देखें पृ. 19 और 68 *2. अभयदेवसूरिजी आदि जिनवल्लभगणिजी, जिनदत्तसूरिजी आदि के पूर्वज थे कि नहीं उसके स्पष्टीकरण हेतु देखिये पृ. 53-55 इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /041