________________ गया होना चाहिए परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि हारनेवाले चैत्यवासी 'कँवला'कोमला' इस प्रकार कोमलता वाचक शब्दों से कहे जाने लगे, ऐसा खरतरगच्छ की पट्टावलियाँ कहती है। अतः खरतरगच्छ की पट्टावलीयों से भी ‘खरा हो' इस अर्थ में खरतर बिरुद का दिया जाना गलत सिद्ध होता है। इस प्रकार व्याकरण, व्यवहार एवं खरतरगच्छ की पट्टावली के उल्लेखों से 'खरा हो' इस अर्थ में 'खरतर' बिरुद का दिया जाना गलत सिद्ध होता है। II दसरी बात जिनेश्वरसूरिजी को आचार की कठोरता के उपलक्ष्य में 'खरतर' बिरुद दिया गया था, ऐसा भी नहीं कह सकते हैं। क्योंकि शिथिलाचारी ऐसे चैत्यवासी एवं उद्यत विहारी ऐसे जिनेश्वरसूरिजी में से किसकी चर्या कठोर थी वह तो सामान्य जन में भी प्रसिद्ध थी। अतः 'आचार की कठोरता किसकी है?' उसके निर्णय हेतु वाद का होना ही संभव नहीं है और न ही वाद में विजय पाने पर किसी के आचार की कठोरता की प्रशंसा की जाती है, वहाँ तो विजयी पक्ष की सत्यता एवं ज्ञान की उत्कृष्टता ही प्रशंसनीय होती है। इस प्रकार सिद्ध हाता है कि 'जिनेश्वरसूरिजी का पक्ष खरा है, शास्त्रीय है' अथवा 'उनका चारित्र कठोर है', इसमें से किसी भी अर्थ में 'खरतर' शब्द का बिरुद के रूप में प्रयोग किया जाना ही जब संभव नहीं है, तब जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद दिया गया था, यह कैसे कह सकते हैं? महोपाध्याय विनयसागरजी ने भी 'खरतरगच्छ का वृहद् इतिहास', प्रथम खण्ड पृ. 12 पर "खरतरगच्छीय परंपरा के अनुसार चौलुक्य नरेश दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवासियों के प्रमुख आचार्य सूराचार्य से शास्त्रार्थ में विजयी होने पर राजा ने जिनेश्वरसूरि को खरतर उपाधि प्रदान की और उनकी शिष्यसन्तति खरतरगच्छीय कहलायी। दर्लभराजा ने जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद प्रदान किया हो अथवा नहीं किन्तु इतना तो सुनिश्चित है कि शास्त्रार्थ में उनका पक्ष सबल अर्थात खरा सिद्ध हुआ और उसी समय से सुविहितमार्गीय मुनिजनों के लिये गूर्जर भूमि विहार हेतु खुल गया। मुनि जिनविजय आदि विभिन्न विद्वानों ने भी इस बात को स्वीकार *1 सूराचार्य से वाद हुआ था या नहीं उसके स्पष्टीकरण के लिये देखिये पृ. 37-38 इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /040