________________ और वह भी जिनविजयजी के मत से विशेष ऐतिहासिक मूल्य नहीं रखती है। तथा खरतर बिरुद की प्राप्ति की बात जिसमें आती है, ऐसी वर्तमान में उपलब्ध 1819वीं शताब्दी की पट्टावलियाँ भी इस प्रबन्धावली के आधार से ही लिखी गयी है। अतः जिनविजयजी ने उन्हें भी विश्वसनीय नहीं मानी है। महो. विनयसागरजी ने भी अर्वाचीन पट्टावलियों में त्रुटियाँ होने की बात को 'खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास' के स्वकथ्य में पृ. 36 पर स्वीकारा है। देखिये'क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित खरतरगच्छ पट्टावली की रचना वि. सं. 1830 में हई है। यह पट्टावली श्रवण परम्परा पर आधारित है। 8, 9 शताब्दी पूर्व के आचार्यों के वृत्तान्त एवं घटनाओं में कुछ भूल हो, यह स्वाभाविक है।' इस प्रकार जिनविजयजी के संशोधनात्मक उल्लेख से ही ‘वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि एवं उसका अनुसरण करनेवाली अर्वाचीन पट्टावलीयाँ अनैतिहासिक सिद्ध होती हैं, उसी के साथ उसमें बताई गयी ‘खरतर बिरुद प्राप्ति की बात' अनैतिहासिक एवं अर्वाचीन कल्पना सिद्ध होती है। इस बात की पुष्टि महो. विनयसागरजी के उल्लेख से भी होती है। अतः खरतर बिरुद प्राप्ति की बात के उसके निराकरण हेतु विशेष लिखने की जरुरत नहीं रहती है, फिर भी खरतर बिरुद प्राप्ति की बात का लंबे समय से प्रचार किया गया होने से सामान्य जन के अंतःस्थल में वह ऐतिहासिक सत्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है। इसलिए 'खरतर बिरुद प्राप्ति के जो उल्लेख मिलते है, उनका क्रमबद्ध ऐतिहासिक निराकरण यहाँ पर दिया जा रहा है, ताकि इसे पढ़कर चिरकाल से रूढ़ हुई गलत मान्यता को सुधारी जा सके। महो. विनयसागरजी का स्पष्ट बयान!!! "कुछ ऐसी भी जिन प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जिन पर स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठितं खरतरगणाधीश्वर श्री जिनदत्तसूरिभिः' ऐसा शब्द उत्कीर्ण है। इसकी लिपि परवर्तीकालीन है। दूसरे इस समय तक खरतरगच्छ शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ था, अतः ये लेख अप्रामाणिक मानने में कोई आपत्ति नहीं है।" (बीकानेर जैन लेख संग्रह, लेखांक 2183) -खरतरगच्छ का बृहत इतिहास, खण्ड 1, पृ. 53 / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ/035 )