________________ परायणेन प्रभुश्री जिनदत्तसूरयो धर्माचार्यतया प्रतिपन्नाः। ते च तत्पुत्राः पित्राज्ञारता अपि धर्मज्ञा अपि कालदोषात् युतभावं कर्तुमीषुः। स च चाहिलस्तथा गुणमनीक्षमाणः पुत्राणां शिक्षाप्रदिदापयिषया तथाविधस्वरूपगर्भी विज्ञप्तिका प्रभुश्रीजिनदत्तसूरीणां प्रेषयामास। ततस्तैरपि करुणासुधासमुद्रैस्तेषामुप-चिकीर्षया एवंविधधर्मदेशनागर्भः प्रतिलेखः प्रेषितः। ततस्ते एतदनुसारेण प्रवर्त्तमाना विविधमानृधुः, विधिधर्मं चाराधयामासुरिति।।25।।। इसमें ‘खरउ वीमंसिउ' का अर्थ-‘खरमत्यर्थं विमW...' इस प्रकार किया है। एवं श्लोक का भावार्थ यह है कि चाहिल नाम के व्यक्ति को चार पुत्र थे, वे काल के दोष से सद्धर्म से भ्रष्ट हो गये थे, अतः उन्हें प्रतिबोध करने हेतु जिनदत्तसूरिजी को विज्ञप्ति भेजी थी। उसके जवाब के रूप में जिनदत्तसूरिजी ने यह उपदेशात्मककुलक उन पुत्रों को भेजा था। इसमें अंत में यह उपदेश दिया कि आपके पिता चाहिल ने जो मार्ग बताया है, उसके विषय में खूब विचार करके सन्मार्ग में सदा प्रवृत्त रहना। इस प्रकार यहाँ पर 'खरउ वीमंसिउ' के द्वारा उन पुत्रों को खूब विचार करने की बात कही थी तो उसमें खरउ' से खरतरगच्छ का सूचित होना कैसे माना जा सकता है? टीका प्रशस्ति सूरप्रभोऽभिषेकः श्रीजिनपतिसूरिपदकमलभृङ्गः। व्यावृत द्वारात्रिंशतमल्पमेधसां किमपि बोधाय।।1।। कालस्वरूपकुलकं व्याख्याय यदर्जितं मया पुण्यम्। तेनास्तु भव्यलोकः सकलोऽपि विधिप्रबोधरतः।।2।। इस प्रशस्ति में भी सूरप्रभ उपाध्याय ने 'विधिप्रबोधरतः' के द्वारा अपने गच्छ को विधिगच्छ के रूप में बतया है। इस प्रकार हमने देखा कि खरतरगच्छ के अनुयायियों के द्वारा ‘खरतर' बिरुद प्राप्ति विषयक दिये जाने वाले प्राचीन प्रमाण, ऐतिहासिक कसौटी करने पर अप्रामाणिक सिद्ध होते हैं, अतः पूर्व में बताये हुए प्राचीन प्रमाणों के आधार से सिद्ध होता है कि जिनेश्वरसूरिजी को 'खरतर' बिरुद प्राप्ति का उल्लेख उनकी परंपरा में 200 साल तक किसी ने नहीं किया है परंतु चान्द्रकुल आदि का ही उल्लेख किया है। अतः स्पष्ट होता है कि जिनेश्वरसूरिजी को 'खरतर' बिरुद नहीं मिला था। ( इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /030