________________ लालचन्द्र भगवानदास गांधीजी की कपोल कल्पना इस प्रकार महोपाध्याय विनयसागरजी भी ‘खरतर' शब्द की प्रसिद्धि जिनदत्तसूरिजी के समय तक नहीं हुई थी, बाद में हुई थी, ऐसा स्वीकारते हैं। परंतु कुछ अनुरागी जन खरतर बिरुद को प्राचीन सिद्ध करने हेतु ‘खर' ये अक्षर जहाँ पर भी दिख जावे इसे 'खरतर' बिरुद का सूचक मानने को तैयार हो जाते हैं। ऐसा ही जिनपीयूष-सागरसूरिजी की पुस्तिका ‘खरतरगच्छ का उद्भव' में पृ. 5 पर दिये गये पं. लालचन्द्र भगवानदास गांधी के लेख में दिखता है। वह लेख जिनदत्तसूरिजी रचित 'कालस्वरूपकुलक' की 25वीं गाथा संबंधी है। उसमें “तुम्हह इहु पहुंचाहिलि दंसिउ हियइ बहुत्तु खरउ वीमंसिउ।” इस वाक्य को ‘खरतर' बिरुद का सूचक माना है। उनका लेख इस प्रकार है “उपर्युक्तायामेव गाथायां ‘बहुत्तु खरउ' पदं प्रयुज्य ग्रन्थका निजाभिमतस्य विधिपथस्य 'खरतर' इति गच्छसंज्ञा ध्वनिता वितळते। विधिपथस्यैव तस्य कालक्रमेण प्रचलिता ‘खरतरगच्छ' इत्यभिधाऽद्यावधि विद्यते।" इसमें 'विधिपथस्यैव.....' के द्वारा भी स्पष्ट होता है कि उस समय में जिनदत्तसूरिजी का गच्छ विधिपथ के रूप में प्रसिद्ध था एवं बाद में उसकी खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्धि हुई। 'खरउ' से खरतरगच्छ के सूचित होने की बात का निराकरण इस ग्रंथ की टीका से ही हो जाता है। टीका का पाठ इस प्रकार है। तुम्हह इहु पहु चाहिलि दंसिउ, हियइ बहुत्तु खरउ वीमंसिउ। इत्थु करेजह तुम्हि सयायरु, लीलइ जिव तरेह भवसायरु।।25।। (युष्माकमेष पन्थाश्चाहिलेन दर्शितो, हृदये प्रभूतं खरं विमर्थ्य (मर्शितः)। अत्र कुर्यात यूयं सदाऽऽदरं, लीलया यथा तरथ भवसागरम् / / 25 / / ) ___व्या. युष्माकं यशोदेवाभू-आसिग-सम्भवानां एष पन्थाश्चाहिलेन युष्मत्पित्रा दर्शितः। अथ च चाहिलिकोऽर्थो वीक्ष्य सन्मार्गपरीक्षणेन हृदये बहु प्रभूतं खरमत्यर्थं विमर्थ्य अत्र सन्मार्गे कुर्यात यूयं सदा सर्वदा आदरं प्रयत्नं लीलया यथा तरथ भवसागरम्। किलाणहिलपाटकपत्तने चाहिलनामा श्रावको धर्मार्थी विचारचातुरीचञ्चरभूत्। तस्य च चत्वारः पुत्रा बभूवुः। तद्यथा-यशोदेवः, अदभुत आभू इति प्रसिद्धः, आसिगः, सम्भवश्चेति। तेन च चाहिलेन धर्म-गुरुपरीक्षा इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /029