________________ जिनदत्तसूरिभिः' उपरोक्त शिलालेखों में चतुर्थ शिलालेख 1167 का है। जिनदत्तसूरिजी को सूरि पद वि. सं. 1169 में मिला था। उसके पूर्व जिनदन्तसूरिजी का नाम सोमचंद्र था। जब 'जिनदत्तसूरि' इस नाम की प्राप्ति ही उन्हें सं. 1169 में हई थी, तो सं. 1167 के शिलालेख में जिनदत्तसूरिभिः ऐसा उल्लेख आ ही कैसे सकता है? __ जिनदत्तसूरिजी ने जिस तरह जिनबिंबों की प्रतिष्ठा की थी, उसी तरह उन्होंने कई ग्रंथों की रचना भी की थी। मूर्तियों के नीचे 2-3 पंक्ति के शिलालेख में खरतरगच्छीय सुविहित गणाधीश्वर इत्यादि विशेषण लिखे जा सकते थे, तो उनके ग्रंथों की लम्बी प्रशस्तिओं में 'खरतर' शब्द की गन्ध तक भी क्यों नहीं मिलती है? यह बड़े आश्चर्य की बात है!! अतः उपर के सभी लेख अप्रामाणिक सिद्ध होते हैं। दूसरी बात इनकी लिपी भी परवर्तीकालीन है, ऐसा महोपाध्याय विनयसागरजी ने भी स्वीकारा है। महोपाध्याय विनयसागरजी ने ‘खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास' खण्ड-1 पृ. 53 पर इस प्रकार स्पष्टीकरण दिया है स्व. श्री भंवरलालजी नाहटा के मतानुसार महावीर स्वामी का मंदिर, डागों की गवाड़, बीकानेर में वि. सं. 1176 मार्गसिर वदि 6 का एक लेख है। यह लेख एक परिकर पर उत्कीर्ण है। इसमें जांगलकूप दर्ग नगर में विधि चैत्य-महावीर चैत्य का उल्लेख है। इसी वर्ष, माह और तिथियुक्त एक अन्य अभिलेख भी प्राप्त हुआ है। यह अभिलेख चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, बीकानेर में संरक्षित एक प्रतिमा के परिकर पर उत्कीर्ण है। इन दोनों लेखों में “वीरचैत्ये विधौ” और शब्द से ऐसा लगता है कि ये जिनदत्तसूरि द्वारा ही प्रतिष्ठापित रहे हैं। कुछ ऐसी भी जिन प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जिन पर स्पष्ट रूप से “प्रतिष्ठितं खरतरगणाधीश्वर श्रीजिनदत्तसूरिभिः” ऐसा शब्द उत्कीर्ण है। इसकी लिपि परवर्तीकालीन है। दूसरे इस समय तक खरतरगच्छ शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ था, अतः ये लेख अप्रमाणिक मानने में कोई आपत्ति नहीं है। (बीकानेर जैन लेख संग्रह, लेखांक 2183) इस प्रकार महो.विनयसागरजी ने स्पष्ट शब्दों में स्पष्टीकरण किया है कि - उस समय तक खरतरगच्छ शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ था। इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /028