________________ 'जो के जेलसमेरनी ताड़पत्रीय पार्श्वनाथ चरित्रनी प्रतिनी प्रशस्तिमा ‘विउलाए वइरसाहाए' पाठने भूसी नाखीने बदलामां ‘खरयरो वरसाहाण' पाठ अने 'आयरियजिणेसरबुद्धिसागरायरियनामाणो' पाठने भूसी नाखीने तेना स्थानमा 'आयरियजिणेसरबुद्धिसागरा खरयरा जाया' पाठ लखी नाखेलो मले छे; परंतु ए रीते भूसी-बगाडीने नवा बनावेला पाठोने अमारी प्रस्तुत प्रस्तावनामां प्रमाण तरीके स्वीकार्या नथी। ऊपर जणाववामां आव्यु तेम जेसलमेरमां एवी घणी प्राचीन प्रतिओ छे जेमांनी प्रशस्ति अने पुष्पिकाओना पाठोने गच्छव्यामोहने अधीन थई बगाडीने ते ते ठेकाणे 'खरतर' शब्द लखी नाखवामां आव्यो छे, जे घणुं ज अनुचित कार्य छे'। आ.जिनपीयूषसागरसूरिजी के अप्रमाणिक प्रमाण!! इसी प्रकार जिनपीयूषसागरसूरिजी ने 'खरतरगच्छ का उद्भव' नाम की पुस्तिका के पृ. 31 पर प्राचीन प्रमाण के रूप में देवभद्रसूरिजी रचित 'पासनाह चरियं' (सं. 1168) की प्रशस्ति में खरतर बिरुद का उल्लेख किया जाना बताया है। उनकी यह बात स्पष्ट रूप से गलत सिद्ध होती है। क्योंकि उसकी प्रशस्ति में चान्द्रकुल का ही उल्लेख किया है, खरतर बिरुद की बात ही नहीं है। वह प्रशस्ति पीछे परिशिष्ट में पृ. 81 पर दी गयी है। इस तरह उक्त पुस्तिका में सं. 1147 का खरतरगच्छ की प्राचीनता की सिद्धि करने वाला लेख दिया है एवं अन्य प्राचीन लेखों के प्रमाण दिये हैं। वे सब कब के जाली सिद्ध हो चुके हैं। पता नहीं क्यों उन्हीं पुरानी बातों को लेकर अपने मत की सिद्धि करने का प्रयास किया जाता है? धन्यवाद तो साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागरजी को है, जिन्होंने उन लेखों को खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास में अप्रामाणिक माना है एवं खरतरगच्छ प्रतिष्ठालेख संग्रह में उन्हें स्थान नहीं दिया है। जिनपीयूषसागरसूरिजी का लेख इस प्रकार है:___ यह उल्लेख संवत् 1139 में बने हुए श्री वीर चरित्र में है, यह रचना नवांगी वृत्तिकार खरतरगच्छीय श्री अभयदेवसूरिजी के सन्तानीय श्री गुणचन्द्रगणिजी ने की है। अन्य गच्छीय पट्टावलियों में जो बहुत ही अर्वाचीन है उनमें खरतरगच्छ की उत्पत्ति सं. 1204 में होना लिखा है, यह मत सरासर भ्रामक व वास्तविकता से परे है। जैसलमेर दुर्ग में *1 देखें पृ. 28 पर / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /024 )